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________________ १५२ ] मरण काण्डिका निवर्तनं न वोषेभ्यो न गुणेषु प्रवर्तनम् । विधत्ते क्षपकः सर्थवोषमत्याजितो यतः ॥५०२॥ छंद शालिनीनित्योत्पीडी पोयित्वा समस्तांस्तस्माद् दोषस्त्यिाजयेत्तं हितार्थी। व्याधिध्वंसं कि विषत्त न वैखः, तन्वन्बाधा व्याधितस्येष्टकारी ॥५०३॥ ॥ इति उत्पीडो ।। बोषो निवेशितो यत्र, तप्ते तोयमिवायसि । न निर्याति महासारे, स ज्ञातव्योऽपरिस्रवः ।।५०४॥ यदि आचार्य क्षपकको जबरदस्ती दोषोंसे दूर नहीं करता एवं गुणोंमें प्रवृत्त नहीं करता है तो वह क्षपक बादर सूक्ष्म सब प्रकारके दोषोंको करेगा क्योंकि उसने दोष छुड़ाये नहीं-दोषोंका निष्कासन नहीं किया है ।।५०२।। , क्ष पकके हितका इच्छुक उत्पीड़ी आचार्य क्षपकको कठोर वचन आदिसे पीड़ा पहुँचाकर उससे समस्त दोष हटाता है । ठीक ही है। क्योंकि रोगीका हितचिंतक वंद्यराज रोगीको कड़वी औषधिका सेवन पथ्यपालन आदि द्वारा बाधा पहुंचाकर च्याधिका नाश क्या नहीं करता है ? अवश्य करता है ।।५०३॥ उत्पीडक वर्णन समाप्त । अपरिस्रावोगुण- क्षपक द्वारा दोषोंका निवेदन आचार्यके निकट करनेपर उस आचार्य में बे दोष ऐसे गुप्त या समाप्त होते हैं जैसे कि तपे लोहेपर गिरा हुआ जल गुप्त-समाप्त-लीन हो जाता है । महासार भूत उन आचार्य से बाहर कभी भी नहीं निकलते हैं एवं गुण विशिष्ट आचार्य अपरिस्रावी विशेषण युक्त माने जाते हैं ।।५०४॥ भावार्थ-जैसे तपा हुआ लोहेका गोला चारों तरफसे पानीका शोषण कर लेता है शोषणके बाद वह जल कभी भी लोहेसे बाहर नहीं निकलता से ही क्षपकने अपने छोटे बड़े गुप्त प्रगट सब तरह के दोष आचार्यको कह दिये हैं उनको सुनकर आचार्य उन्हें अपने मनमें ही रख लेते हैं अन्य यति श्रावक आदि किसोके समक्ष उन दोषोंको कभी भी नहीं बतलाते हैं वे आचार्य अपरिस्रावी हैं ऐसा समझना चाहिये।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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