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सुस्थिताधिकार
॥४६६ ।।
कंठीरम इवौजस्वी तेजस्वी भानुमानिव । चक्रवर्ती वर्चस्वी, सूरिरुत्पीडकोकfथ विदार्य वदनं घृतम् । रटन्तं हितकारिणी ||४६७ || हितारोपपरायणः । वर्ष त्याजयतेऽखिलं ॥। ४६८ || न लिहन्नपि जिह्वया ।
सारणया युतः ॥४६६॥
यथावष्टभ्य हस्ताभ्यां बालं पाययते माता, प्रोड्य सथोत्पीडी अनृजुं क्षपकं सुरि, भद्रः सारगया होनो, ताडयन्नपि पादेन,
भद्रः
परकार्यपराचीनाः, सुलभाः स्वार्थकारिणः । श्रात्मार्थमिव कुर्वाणाः परार्थमपि दुर्लभाः ॥ ५०० ॥ परार्थमपि कुर्वते ।
संति दुर्लभाः ।। ५०१ ॥
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ये स्वायं कर्तुं मुद्युक्ताः, कटुकै: परdari, स् तरां
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अवपीड़क गुणधारी आचार्य सिंहके समान ओजस्वी, सूर्यके समान तेजस्वी, चक्रवर्ती के समान वर्चस्वी होता है || ४६६ ॥
जिसप्रकार हितकारिणी माता रोते हुए बालकको पकड़कर दोनों हाथोंसे मुखको फाड़कर घृतको पिलाती है || ४९७||
उसी प्रकार क्षपकके हित करनेमें तत्पर उत्पीड़क आचार्य पीड़ित करके जबरदस्ती उस कुटिल क्षपकसे सब दोषोंको छुड़ाता है ।।४९८ ।।
जो आचार्य जिह्वासे मधुर बोलते हुए भी सारणासे हीन है— क्षपकको गुणमें प्रेरित नहीं करते वे श्रेष्ठ नहीं हैं किन्तु दोष निकालने हेतु क्षपक को पैर से ताड़ित भी करे तो वह श्रेष्ठ है क्योंकि सारणायुक्त है ॥। ४९९ ।।
जो परके कार्योंसे विमुख हैं केवल स्व कार्य में ही लगे हैं ऐसे पुरुष तो सुलभ हैं, किन्तु अपने कार्य के समान पराये कार्यों को करते हैं ऐसे पुरुष सुलभ नहीं अति दुर्लभ हैं ।। ५००।।
जो स्वकार्यको करने में उद्यमशील होकर साथमें पराये कार्यको भी करते हैं । पराये कार्योंको संपन्न कराने के लिये कठोर एवं कड़वे वाक्य बोलने वालें पुरुष तो अत्यंत दुर्लभ हैं ।। ५०१ ।।