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मरगाकण्डिका कथायामकथायां च, दोषाणां गुणदोषयोः । कथायामपि नो करिच, बालोचयति बक्रधीः ॥४६४॥ दोषमुद्गाल्यते तत्स्थ, मुत्पोड्योत्पीडनो यतिः । मांसं कंठीरवेणेव शृगालः कुर्वता भयम् ॥४६५||
मातासे सब बात नहीं कहता ? गुरु कभी भी शिष्यके दोषको प्रगट नहीं करते । परके दोष गुरुजन तो क्या अन्य भी प्रगट नहीं करते क्योंकि उससे नीच गोत्रका बंध होता है । तुम अपने धर्मको मलिन मत करो, आलोचना द्वारा उसे सुविशुद्ध बनाओ अपने दोष बिलकुल निःशंक होकर कहो, हम तुम्हारे दोष किसीके भी सामने प्रगट नहीं करेंगे । कोई भी विद्वान् पराये दोष बाहर नहीं कहता । इत्यादि वाक्यसे क्षपकका मन आलोचनाको ओर उद्यत करता है ।
___ कोई कुटिल बुद्धिवाला क्षपक ऐसा होता है कि उसको आलोचनाके नहीं करनेसे क्या दोष होता है इस बातको समझाया है अथवा नहीं समझाया तथा आलोचनाके गुण और दोष अर्थात् आलोचना करनेमें बहुत लाभ या गुण प्राप्त होते हैं और नहीं करने में बहुत दोष या हानि होती है ऐसे दोनों ही विषयोंको आचार्य समझा चुके हैं फिर भी वह आलोचना नहीं करता ।।४६४॥
जब क्षपक समझाने पर भी आलोचना नहीं करता तब उत्पोड़ी या अवपीड़क गुणधारी आचार्य उस क्षपक में स्थित जो दोष हैं उनको तिरस्कार डाँट फटकार द्वारा क्षपकसे उगलवा देते हैं, जैसे कि शृगालको डर दिखाकर सिंह उससे मांस उगलवा लेता है ॥४९॥
विशेषार्थ---आलोचना नहीं करने वाले क्षपकको आचार्य डाटकर डर दिखाकर कठोर बाणीसे उसका दोष निकलवा लेते हैं। वे कहते हैं-हे क्षपक ! रत्नत्रय धर्ममें तुमको बिलकुल आदर नहीं है, हे अपराधी ! तुम हमारे यहां से निकल जावो तुमको हमारेसे क्या प्रयोजन है । जब तुम अपना दोष रूप रोग दूर नहीं करना चाहते । केवल आहार का त्याग करनेसे सल्लेखना नहीं होती। यह क्या क्षपकत्व पदको विडंबना करते हो । जब तुम कपट भाव नहीं छोड़ते तो तुमको अन्य यतिजन नमस्कार नहीं करेंगे इत्यादि ।