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________________ [ १४६ मुस्थितादि अधिकार प्रायाः शिस्तु रोपे रक्षेमं बुनिता पोल: तत्राराधयते चतुरंग नूनं विघ्नमशेषमपास्य ॥४६१॥ ॥ इति पायापादिक् ।। कश्चनाकथने दोषे दोषाणां मथने गुणे । धक्रात्मा कथ्यमानेऽपि नालोचयति तत्त्ववित् ॥४६२।। एकान्ते मधुरं स्निग्धं गंभीरं हृदयंगमम् । स वाख्यः सूरिणा वाक्यं प्रांजलीकुर्वता मनः ॥४६३॥ • - - -- है और अपराध निवेदन करना उपादेय-ग्रहण करने योग्य । ऐसा वह क्षपक नहीं समझ पायेगा अतः दोषोंसे दूर नहीं होगा और गुणों में प्रवृत्ति नहीं करेगा ॥४६॥ अतः बुद्धिमान् क्षपक मुनिको चाहिये कि वह भाय अपाय दर्शक आचार्यके निकट रहे । उनके निकट में ही निश्चयसे चार माराधना सर्व विघ्नरहित संपन्न होती है ।।४६१।। || आयापायदर्शी वर्णन समाप्त ।। आचार्यके अवपीड़क या उत्पीड़ी गुणका वर्णन निर्यापक आचार्य द्वारा आलोचनासे होनेवाले गुण और आलोचनाके अभाव में होनेवाले दोष क्षपकको दिखा देनेपर अर्थात् अपने अपराध कहोगे तो गुण है और नहीं कहोगे तो दोष है इसतरह समझाने पर भी कोई कुटिल बुद्धिवाला क्षपक आलोचना नहीं करता ।।४६२।। इस तरह क्षपकके आलोचना नहीं करनेपर आचार्य उसे पुन: एकान्तमें ले जाकर मिष्ट स्नेह भरे, गंभीर हृदयको हरनेवाले ऐसे सुदर वचन कहकर समझाते हैं, उसके मनको सरल निर्मल करते हैं ।।४६३।। विशेषार्थ-क्षपक आलोचना नहीं करे तो प्राचार्य उसे किसी रम्य प्रदेश में लेजाकर अत्यंत मधुर वाणीसे समझाते हैं कि हे आयुष्मन् ! रत्नत्रयमें दोष न हो ऐसा आप सदा ही प्रयत्न करते आये हो ! आप भय और लज्जाको छोड़ दीजिये, गुरुजन तो माता पिता सदृश होते हैं उनको अपने दोष बताने में क्या भय ! क्या बालक अपनी
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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