SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ ] मरण कण्डिका तोवव्यथासु योनीषु पच्यमानः स संततं । तत्र दुःखसहस्राणि दोनो वेदयते चिरम् ॥४८५।। मुहर्तमप्यतः स्थातु सशल्येन न शक्यते । प्राचार्यपादयोम ले तबुद्धर्तव्यमंजसा ॥४८६।। जिनेंद्रवचनश्रद्धा जरामरणभीरवः । निराकृत भयवीडाः संपन्नावमावाः ॥४६७।। पुनर्भवलतामूलमुत्पाटय निखिलं बुधाः । संवेगोत्पन्नवैराग्यास्तरन्ति भववारिधिम् ॥४८॥ यतः प्रसूचने दोषं वोषाणां सूचने गुरणं । (एवं) न तु वर्शयते सूरिरायापाय प्रवर्शकः ॥४८६।। सदानी क्षपको नूनं हेयादेयविमूढधीः ।। निवर्तते न दोषेभ्यो न गुणेषु प्रवर्तते ॥४०॥ उस संसारमें तीन पीड़ावालो चौरासी लाख योनियों में समाधिको नष्ट करने । वाला वह क्षपकका जीव सतत् सहस्रों दुःखोंको दोन हुआ भोगता है, अर्थात् संपूर्ण योनियों में भ्रमण करते हुए वहांके सर्व दुखोंका उसे सामना करना पड़ता है ।।४८५।। इसीलिये हे क्षपक ! तुम्हारे लिये एक मुहूर्त भी शल्य युक्त रहना ठीक नहीं है । उस शल्यको तो आचार्य देयके चरण कमलोंमें भलोप्रकारसे निकाल ही देना चाहिये ।।४८६।। ___ जी जिनेन्द्रदेवको वाणोमें श्रद्धावान हैं, जरामरणसे भयभीत हैं, भय और लज्जाको दूर करनेवाले हैं, मार्दव आर्जवयुक्त हैं । संसार स्वरूपके चिंतनसे संवेग और वैराग्यको प्राप्त हुए हैं ऐसे बुद्धिमान् क्षपक आलोचना करके पुनर्भवरूपी लताकी जड़ को उखाड़कर फेंक देते हैं और संसार सागरसे पार हो जाते हैं। अर्थात् भावशल्य जो माया छल कपट है उसके छोड़ने में शुद्ध आलोचना पूर्वक समाधिमरण होता है उससे संसार भ्रमण समाप्त हो जाता है ॥४८७।।४८८।। ___ आलोचना द्वारा गुरुको अपने अपराध नहीं बतानेमें बड़ा भारी दोष है और अपराधोंको बता देने में विशेष गुण है, ऐसा आचार्य यदि नहीं समझाते तो वे आयापायदर्शी नहीं हैं [यह श्लोक अशुद्ध प्रतीत होता है] ॥४८६ ।। निर्यापक आचार्य द्वारा इसतरह आलोचनाके गुण नहीं बतानेपर वह क्षपक नियमसे हेय और उपादेय में मूढ़बुद्धि होवेगा अर्थात् अपराधका निवेदन गुरुके समक्ष नहीं बताना तो हेय है, त्याज्य
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy