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सुस्थितादि अधिकार
द्रव्यशल्ये यथा दुःखं सर्वांगीण व्यथोवयः । भावशल्ये तथा जन्तोविज्ञातव्य
मनुद्धते ॥ ४८१ ॥
कंटकेऽनुद्धते प्राप्तो यथा स्वकील नालिकां । पूर्ति वल्मीकराणि प्राप्यानि सटति स्फुटम् ॥४८२ ।। विविधं दोषमापन्नः संयमोऽनुद्धते तथा । भयगौरवलज्जाभिः भावशल्ये विनश्यति ||४८३ ॥ प्रभ्रष्टबोधिलाभोतश्चिरकालं भवार्णवे t जन्ममृत्युजरायतें जीवो भ्रमति भीषणे ।।४६४।
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जिसतरह द्रव्यशल्य- काँटा आदिके लग जानेपर सर्वांगीण पीड़ा और दुःख होता है उसी तरह भावशल्य-माया कपटको निकाल नहीं देंगे तो जीवोंको संसार भ्रमणरूप महान् दुःख होता है ||४८१||
जैसे कांटेको नहीं निकाला तो वह पहले चर्ममें घुसता है उससे पांवमें छिद्र होता है अनंतर पांवमें अंकुरवत् मांस वृद्धि होती है पुनः वह कोटा नाड़ी तक घुसने से वहांका मांस सड़ता है पुनः बहुतसे छिद्र होकर वह पांव निरुपयोगी बन जाता है।
११४८२।।
उक्त पैरके समान ही भय, गौरव और लज्जासे भावशल्य-मायाकपट को नहीं निकाल दिया तो विविध दोष युक्त हुआ संयम नष्ट हो जायगा ॥४८३ ॥
भावार्थ -- क्षपक भयसे दोष छिपाता है कि यह मुझे बड़ा प्रायश्चित्त देंगे । लज्जासे - यह आचार्य मेरा तिरस्कार करेंगे, अथवा अपना बड़प्पन दिखाने हेतु क्षपक आलोचना नहीं करता अतः आचार्य उसे कांटेका उदाहरण देकर समझाते हैं कि कांटा नहीं निकाला तो पैर सड़कर नष्ट हो जाता है, बेकाम हो जाता है ऐसे ही मनका मायाभाव नहीं निकाला तो संयम और समाधि नष्ट होती हैं ।
अहो क्षपकराज ! आलोचना नहीं करनेसे समाधि नहीं होती । जिसका बोधि समाधि लाभ नष्ट हो चुका है ऐसा जीव चिरकाल तक जन्म जरा और मरणरूपो भयंकर आवर्त जिसमें उठ रहे हैं ऐसे घोर संसार समुद्र में परिभ्रमण करता है
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