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मरण कण्डिका
श्रायापायविधिर्येन
विश्यते
क्षपकस्या
ततो वक्रमतेस्तस्य
श्रायापायविशा वाच्यौ
लब्ध्या
सारं
दुःखतः संयमं
सशल्य मृत्युना
हेयोपादेयवेदिना t सावायापायविशुच्यते ॥ ४७८ ।।
सामान्यालोचनाकृते ।
गुणदोषों गणेशिना ॥ ४७६ ॥
शरीरी भवसागरे ।
नाशयत्यपचेतनः ॥४८०॥
आचरण शुद्ध है ऐसा सिद्ध करने हेतु स्वदोषोंको गुरु समक्ष नहीं कहना चाहता है, अपना महत्व स्थापित करना चाहता है । इसतरह पूजा प्रतिष्ठा ख्यातिका इच्छुक वह क्षपक गुण और दोषको नहीं देखता अर्थात् आलोचनामें महान् गुण है और आलोचना नहीं करनेमें बड़ा भारी दोष है ऐसा वह नहीं सोच पाता ||४७७॥
क्षपकके द्वारा इसतरह लज्जा आदिके निमित्त शुद्ध आलोचना नहीं करनेपर निपुण निर्यापक जो कि हेय क्या है, उपादेय क्या है इसको अच्छी तरह जानते हैं वे उक्त क्षपकको प्राय और उपायको विधिका उपदेश देते हैं । इसतरहके आचार्यको प्रायोपाय दर्शी कहते हैं । आय - रत्नत्रयकी वृद्धिको कहते हैं और अपाय - रत्नत्रयके नाश को कहते हैं ||४७८ || आलोचना में मायाभाव रखनेवाले वक्रबुद्धि क्षपक द्वारा, यदि सामान्य रूपसे आलोचना को है अर्थात् सामान्य २ अपराध बताता है विशेषको छिपाता है तो आयोपाय दर्शी आचार्य उसे आलोचनाके गुण दोष कहते हैं || ४७९।।
भावार्थ- - क्षपक आलोचना न करे अथवा केवल अपने सामान्य दोषोंको आलोचना करे तो आचार्य उसे समझाते हैं कि आप यदि आलोचना नहीं करेंगे तो आपके रत्नत्रयका नाश होगा और सभी दोषों का निवेदन रूप आलोचना करोगे तो रत्नत्रयधर्म प्राप्त होगा, उसमें निर्मलता आयेगी । जो कपट भावसे आलोचना करेगा उसका चारित्र नष्ट होगा इत्यादि ।
आचार्य क्षपकको उपदेश देते हैं कि संसारी प्राणी इस भवसागर में बड़ी कठिनता से संयमको प्राप्त कर पाता है, संयममें सार ऐसी समाधिको अज्ञानी शल्य युक्त मरण करके नष्ट कर डालता है अर्थात् जो मायाशल्यको नहीं छोड़ता, कपटपूर्वक आलोचना करता है वह सारभूत समाधि सहित संयमका भी नाश कर देता है
॥४८०।।