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________________ सुस्थितादि अधिकार [ १४५ छंद वंशस्थनिपीडपमानः अपकः परीषदः, सुखासिको याति सहायकौशलः। यतस्ततस्तेन समाधिमिछता, निषेवणीया गुरवः प्रकारकाः ॥४७४॥ अस्ति तीरं गतस्यापि, रामद षोदयः परः । परिणामश्च संक्लिष्टः, क्षुत्तृष्णाधि परीषहैः ॥४७५।। आलोचनां प्रतिज्ञाय, पुनविप्रतिपद्यते । लज्जते गौरवाकांक्षी, स तो कतुमपास्तधीः ॥४७६॥ ततः स्थापनाकारी, त्यागावज्ञानभोलुकः । क्षपको गुणदोषो नो, पूजाकामो विवक्षति ॥४७७'। सबमें चतुर है, सेवा-वैयावृत्य विधिमें शक्ति और भक्तिस सदा लगा रहता है। अपने को कितना श्रम हुआ है इसका विचार न करके सदा क्षपकका उपकार करता रहता है, ऐसा गुणवाला आचार्य प्रकारक कहा जाता है ।।४७१॥४७२।।४७३।। परीषहों द्वारा पीड़ित हुआ क्षपक सहायता करनेमें कुशल ऐसे आचार्यादि द्वारा सुखशांतिको प्राप्त होता है, इसलिये समाधिमरणके इच्छुक क्षपकको प्रकारक गुण विशिष्ट आचार्यको सेवा करना चाहिये, अर्थात् प्रकारक आचार्यके निकट समाधि करना चाहिये ॥४७४।। || प्रकारक वर्णन समाप्त ।। आयोपाय दशित्व जिसके संसार सागरका तीर आ चुका है अथवा मनुष्य पर्यायका तीर-अन्त आ चुका है, ऐसे क्षपकके भी रागद्वेषका उदय तीव्र आ सकता है तथा क्षुधा तषा आदि परीषह द्वारा संक्लेश युक्त परिणाम भी होते हैं ।।४७५। कोई क्षपक प्रथम तो मैं निर्दोष आलोचना करूगा ऐसी प्रतिज्ञा करता है किन्तु फिर उस प्रतिज्ञाको छोड़ देता है । गौरवका आकांक्षो नष्ट बुद्धि ऐसा वह क्षपक आलोचना करने में लज्जित होने लग जाता है ।।४७६॥ क्षपकके मन में विचार आता है कि यदि मैं अपराधका निवेदन करूगा तो यह संघ मेरा त्याग कर देगा अर्थात् मुझे संघमें नहीं रहने देंगे, अथवा मेरा तिरस्कार करेंगे । इसतरह वह क्षपक पालोचना करने में भयभीत होता है । अथवा क्षपक मेरा
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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