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मरगाकण्डिका
व्यवहाराबुधः शक्तो, न बिशोधयितु परम् । कि चिकित्सामजानानो, रोगग्रस्तं चिकित्सति ॥४६९।।
छन्द वंशस्थततः समीपे व्यवहारवेदिनः, स्थितिविधेया भपकेण धीमता। सिसिक्षणा बोधिसमाधिपादपो, मनीषितानेक फलप्रदायिनी ॥४७०॥ प्रवेशे निर्गमे स्थाने, संस्तरोपधिशोधने । अदम परावर्ते, शय्यायामुपवेशने ॥४७१॥ उत्थापने मलत्यागे, सर्वत्र घिषिकोविदः । परिचर्या विधानाय, शक्तितो भक्तितो रतः ॥४७२।। प्रात्मश्रममनालोच्य, क्षएकस्योपकारकः । प्रकारको मतः सूरिः, स सर्वावरसंयुतः ॥४७३॥
ही नहीं । यह मुनिको शुद्धि क्या करेगा। यह व्यर्थ ही मुनियोंको कष्ट देता है। इत्यादि रूप अपकीसि अज्ञानी आचार्य प्रायश्चित्त देवे तो होती है। अयोग्य कार्य करनेसे उसका संसार भ्रमण भी बढ़ता है ।
व्यवहारको नहीं जाननेवाला आचार्य अन्य को प्रायश्चित्त देकर शुद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता। चिकित्साको नहीं जाननेवाला पुरुष क्या रोगग्रस्तकी चिकित्साइलाज कर सकता है ? नहीं कर सकता ।।४६९।। इस कारणसे बुद्धिमान् क्षपकको व्यवहारके ज्ञाता निर्यापकके समीप ही रहना चाहिये, कैसा है क्षपक मनोवांछित अनेक फल देनेवाले बोधि और समाधिरूप वृक्षोंको जो सिंचना-वृद्धिंगत करना चाहता है। अर्थात् जिसे अपने बोधि समाधिको बढ़ाना है उस क्षपकको चाहिये कि वह व्यवहारी निर्यापकका आश्रय ले ।।४७०।।
प्रकारकत्व
___ जो निर्यापक क्षपकको वसति आदिमें प्रवेश कराने में, वसति मादि स्थानोंसे बाहर निकालने में प्रवीण है, खड़े करना, संस्तर और उपधिका शोधन करना, कमजोर क्षपकको कर्वट दिलाना, सीधेसे उलटा और उलटेसे सीधा सुलाना, बिठाना इन क्रियाओंमें जो निपुण है । तथा उठाकर खड़ा कर देना, मल-मूत्रका त्याग कराना इन