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सुस्थितादि अधिकार
रागद्दोषावपाकृत्य,
व्यवहारविशारदः 1
व्यवहारी वदारयस्मै, प्रायश्चित्तं विधानतः ||४६७॥ व्यवहारापरिच्छेद, व्यवहारं ददाति यः । अवाध्यासौ यशो धोरं संसारमवगाहते ॥ ४६८ ॥
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लेकर कौनसा दोष किया है, कौनसा क्षेत्र है, निषिद्ध क्षेत्र में गया है इत्यादि बातोंका विचार प्रायश्चित्त देनेवाले आचार्य करते हैं ||४६६ ||
व्यवहार में विशारद ऐसा आचार्य रागभाव और द्वेषभावको दूरकर विधिपूर्वक प्रायश्चित्त देता है || ४६७ ।।
विशेषार्थं — यतिजन अपने महाव्रत आदिमें अतीचार लगनेपर प्रत्याश्चित्त लेते हैं । अतीचार या दोष द्रव्य क्षेत्र आदिक आश्रवसे हुआ करते हैं। सचित्त वस्तुका उपयोग करने से द्रव्य प्रतिसेवना अर्थात् द्रव्य अतीचार होता है । वर्षायोग में दो कोससे अधिक गमन करना, अथवा साधुके लिये सदा हो जो क्षेत्र निषिद्ध है उसमें यदि चला जाय तो क्षेत्र प्रतिसेवता होती है। आवश्यक क्रियाके कालका उल्लंघन होना आदि रूपकाल प्रतिसेवना है । प्रमादभाव, दर्पभय इत्यादि भाव प्रतिसेवना कहलाती है । इन सब कारणोंको आचार्य देखते हैं कि इस शिष्यने द्रव्य प्रतिसेवना को है या क्षेत्र प्रति सेवना । तथा आचार्य यह भी देखते हैं कि यह यति प्रायश्चित्त लेने में किस भाव से प्रवृत्त हुआ है । साथ रहना चाहता है इसलिये, अथवा यशके लिये या केवल कर्म निर्जराके लिये | आचार्य यह भी देखें कि प्रायश्चित्तके लिये कितना उत्साह है। इस शिष्यका दीक्षाकाल कितना हो चुका है ? श्रुतज्ञान कम है या अधिक, वैराग्यशील है या नहीं । संहनन कैसा है । इन सब विषयोंको ज्ञातकर यथायोग्य तद् तद् दोषानुसार आचार्य प्रायश्चित्त देते हैं । यह योग्यता व्यवहार ग्रंथ प्रायश्चित्त ग्रंथों में निपुणता होने पर होती है, अतः आचार्यको व्यवहारी होना चाहिये ।
जो व्यवहार शास्त्र - प्रायश्चित शास्त्रको नहीं जानता वह आचार्य यदि प्रायश्चित्त देता है तो वह अपयश को प्राप्त कर अन्त में घोर संसार में डूबता है
।।४६८।।
भावार्थ - शास्त्रज्ञान विना आचार्य प्रायश्चित्त देगा तो लोग कहेंगे कि यह मुखमें जो आया वह दण्ड देता है किस अपराधका कौनसा प्रायश्चित्त है यह इसे ज्ञात