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मरणकण्डिका
एकः संस्तरकस्थोऽस्तो यजतेंऽगं जिनाज्ञया । दुःकरैः संल्लिखत्यन्यस्तपोभिविविधैर्यति ॥५४॥
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पृच्छा नामका इक्कीसवां अधिकार---
समाधिके हेतु साधुके संघमें आनेपर आचार्य परिचारक-वैयावृत्य करनेमें कुशल मुनिजनोंमे पहले पूछते हैं फिर क्षरकको ग्रहण करते हैं । यदि संघस्थ मनियोंको न पूछा जाय तो अपने संघके और क्षपक के मनकी हानि होगी अर्थात् तीनों को क्लेश होगा ।।५४०॥
भावार्थ-आचार्य संघको पूछते हैं कि रत्नत्रयको आराधना करनेमें यह आगत मुनि अपनो महायता चाहता है साधुके तपश्चरणमें आगत विघ्नको दूर करनेसे तोथंकर गोत्रका बंध होता है । जगत्में लौकिकजन भी परोपकार करते हैं। हम तो मुनि हैं । भव्योंका संसाररूपो कोचड़से निकलना बड़ा कठिन है समाधिके बिना इससे निकला नहीं जाता । यह मुनि अपने सहारे आत्महित करना चाहता है, यह एक तरह से अपना सौभाग्य है । आपकी अनुमोदना होवे तो इस अपकको संरक्षण दिया जाय । यदि ऐसा न पूछे तो आचार्य क्षपक और संघस्थ मुनि इन सबको ही संक्लेश भाव उपजेंगे । हमको तो आचार्य ने पूछा हो नहीं । हम सेवा क्यों करें । ऐसा सोचकर मनि क्षपकको सेवा नहीं करेंगे । इससे आचार्य को दुःख होगा कि मैंने समाधिके लिये रख लिया ये मनि तो सेवासे परांमुख है इत्यादि । क्षपकके वेदनाका प्रतीकार भादि नहीं होने से तथा सहारा नहीं देखकर क्लेश होगा । अतः आचार्य परिचारक मुनियोंको पूछकर क्षपकको स्वोकृत करते हैं।
पृच्छा अधिकार समाप्त (२१) एक संग्रह नामा बाईसवां अधिकार
संघमें आचार्य एक ही क्षपकको संस्तरारूढ होने की आज्ञा प्रदान करते हैं ऐसा बताते हैं
संस्तरमें स्थित होकर एक क्षपक जिनाज्ञा प्रमाण तपरूपी अग्निमें शरीरका दान करता है अर्थात् आहारत्यागादि द्वारा शरीर सल्लेखना करता है अर्थात यावज्जीव पाहारका त्याग कर शरीरकी पूर्णाहुति तप अग्निमें करता है । तथा अन्य