________________
सुस्थितादि अधिकार
यजमानक्षते
नानुमन्यते
1
जनस्तृतीयो द्वित्रिश्रितपात्रेषु समाधियते तराम् ।। ५४२।। छंद रथोद्धता
एकमेव विधिनार्यातिततः स्वीकरोति स्वसहायसम्मतम् । गृह्यते हि कवलः स एव यः पंडितेन वदने
[ १६५
प्रशस्यते || १४३ ||
इति एक संग्रहः ।
कोई एक यति उग्र उग्र विविध तपश्चरण द्वारा शरीरको कृ करता है भाव यह है कि एक में एक साथ दो गुट आहार का यावज्जीव त्याग कर संस्तरारूढ़ न होवे, एक संस्तरारूढ होवे और एक समाधि हेतु उग्र तप करे दूसरा यावज्जीव आहारका त्याग अभी नहीं करे || ५४१ |
शरीरको सल्लेखना करनेमें उद्यत मुनिके हानि होती है इसलिये जैन आचार्य तीसरे क्षपक को आज्ञा नहीं देते हैं । यदि एक संघ में एक निर्यापकके निर्देशन में दो तोन मुनियों को संस्तरारूढ़ कर लेते हैं तो उनको समाधि अतिशय रूपसे नष्ट होती है ।।५४२||
भावार्थ - तीर्थंकर देवको आज्ञा है कि एक निर्यापक आचार्य एक ही क्षपक को संस्तरारूढ़ करता है, अर्थात् आहारका त्याग करनेकी आज्ञा देता है । हां यदि दूसरा तपश्चरण द्वारा समाधिकी तैयारी करे तो कर सकता है इसतरह एक क्षपक सर्वथा आहारका त्याग कर समाधि में उद्यत होता है। दूसरा क्षपक केवल उग्रतप करता रहता है, तीसरा मुनि उस समय सल्लेखना सन्मुख नहीं होता । क्योकि एक साथ दो तीन यति यावज्जोव आहारका त्याग करते हैं तो उन सभो के चित्तका समाधान करना अर्थात् धर्मोपदेशना द्वारा उनके घबराये हुए मनको शांत करना, शरीर मर्दन, मलत्याग आदि वैयावृत्य करना आदि कार्योंको एक निर्यापक कैसे करे ? नहीं कर सकता । तथा संघस्थ परिचारक मुनि भी इन सबके कार्योंको एक साथ निभा नहीं सकते हैं सब पर सेवा वैयावृत्य द्वारा अनुग्रह नहीं किया जा सकता । एतदर्थं एक क्षपकका ही संस्तरारूढ़ होने की आज्ञा है !
इसप्रकार जिनाज़ासे विर्यापक एक ही क्षपकको विधिपूर्वक स्वसहायकी संगति देकर स्वीकार करता है । ठोक ही है क्योंकि वही ग्रास ग्रहण किया जाता है जो पंडित