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________________ १६६ । मरण कण्डिका मध्ये गणस्य सर्वस्य क्षएक भाषते हितम् । इस्थं कारयितु शुद्धां विधिनालोचनां गणी ॥५४४॥ समस्तं स्पश चारित्रं निरस्य सुखशीलताम् । परोषहचम् घोरां सहमानो निराकुलः ॥५४५।। रूपगंधरसस्पर्शशब्बानां मा स्म मूवंशः । कषायाणां विहि त्वं शत्रूणामिध निग्रहम् ॥५४६॥ द्वारा मुख में प्रशंसनीय माना जाता है, अर्थात् मुखमें उतना बड़ा हो ग्रास लिया जाता है जो भलोप्रकार चवाकर गले में उतारा जा सके और ऐसा नास लेना ही प्रशंसा योग्य होता है । यदि बड़ा ग्रास था दो तोन ग्रास एक साथ मुखमें भर लिये जांय तो ठसका आना, मुखसे बाहर निकल जाना, चबा नहीं सकना आदि परेशानियां हो जाती हैं ऐसा खाना बुद्धिमान ठीक भी नहीं मानते । इसोप्रकार एक क्षपकको ही निर्यापक समाधि हेतु स्वीकार करता है ॥५४३।। एक संग्रह अधिकार समाप्त (२२) क्षपक को आचार्य का उपदेश सर्व संघके मध्य में शुद्ध आलोचना को विधिपूर्वक कराने हेतु निर्यापक क्षपकको इसप्रकार हितकारी वचन कहता है ॥५४४।। भावार्थ-संघके मध्यमें क्षपकको उपदेश इसलिये देता है कि संघको भी समाधि का स्वरूप ज्ञात हो एवं संघ वैधावृत्य में तत्पर हो । किस समय क्या प्रवृत्ति होनी चाहिये इत्यादि विषयको जानकारी होवे । आचार्य क्षपकको दिव्यदेशना देते हैं कि भो मुने ! संपूर्ण महाव्रत आदि चारित्रका तुम स्पर्श करो अर्थात् निर्दोष रीत्या व्रताचरण में तत्पर हो । अब तुम्हें सुखियापन छोड़ देना चाहिये । घोर परीषह रूपी सेनाको सहन करते हुए तुम निराकुल रहना अर्थात् परीषह आनेपर घबराना-आकुलता आदिको नहीं करना ।।५४५।। भावार्थ-हे क्षपक ! तुम सुख स्वभावका त्यागकर परीषह सहन करने में तत्पर हो जावो। क्योंकि सुख स्वभावी मुनि प्राहार वसति आदिको शुद्धि नहीं करता-उद्गम आदि दोष युक्त आहारादि ग्रहण करता है उससे चारित्र की शुद्धि नहीं होती।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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