SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुस्थितादि अधिकार [ १६७ रागत षकषायाक्ष संज्ञाभिगौरवादिकम् । विहायालोचनां शुद्धां त्वं विधेहि विशुद्धधीः ।।५४७॥ स पत्रिंशद् गणेनापि व्यवहार पटोयसा ।। कर्तव्यैषा महाशुद्धिरवश्यं परसाक्षिका ॥५४८।। अष्टाचारावयो ज्ञेयाः स्थितिकल्पागुणा देश । तपो द्वादशधा बोढावश्यकं षट्पडाहतम् ॥५४६॥ हे क्षपकराज ! रूप, गंध, रस, स्पर्श और शब्द इन पांच इन्द्रियोंके विषयों के वशमें तुम कभी नहीं होना । जैसे शत्रुओंका निग्रह करते हैं वैसे कषायों का निग्रह भी तुम भलोत्रकारसे करो ।।५४६।। आलोचना नामका तेवीसवां अधिकार (२३) । निर्यापक उपदेश दे रहे हैं कि हे साधो ! राग, द्वेष, कषाय, इन्द्रिय और संज्ञासे रहित होकर तथा ऋद्धि गारव, सात गारव और रस गारव को छोड़कर विशद्धबुद्धिवाले तुम शुद्ध आलोचना को करो ।।५४७।। जो क्षपक व्यवहार चतुर है और छत्तीस गुण समन्वित है उसको भी गुरु की साक्षी पूर्वक महाशुद्धि कारक यह आलोचना अवश्य करनी चाहिये ।।५४८।।। छत्तीस गुण बताते हैं आचारी, आधारी आदि आठ गुण तथा अचेलकत्व आदि दश, स्थिति कल्प बारह प्रकारका तप और छह आवश्यक ये छह गुणित छह अर्थात् छत्तोस गुण हैं ॥५४९॥ भावार्थ-निर्यापक क्षपकको समझा रहे हैं कि जो स्वयं आचार्य हैं आचारी आदि गुणोंसे मण्डित हैं तो भी अन्य आचार्य के समक्ष अपने व्रत संबंधी अपराधों को आलोचना अवश्य करता है। यहांपर आचारी आदि छत्तीस गुण आचार्य परमेष्ठीके बताये हैं वैसे अन्य प्रकारसे भी छत्तीस गुण होते हैं। जैसे-आठ ज्ञानाचार, आठ दर्शनाचार, बारह तप, पांच समिति और तोन गुप्ति ये छत्तीस गुण हैं। ऐसे अन्य प्रकारसे भी हैं ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy