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मरण कण्डिका
सर्वे तीर्थकृतोऽनंत जिनाः केवलिनो यतः । छद्मस्थस्य महाशुद्धि वदन्ति गुरु सन्निधौ ॥५५०॥ कुशलोऽपि यथा वैद्यः स्वं निगद्यातुरो गवम् । मेहास्य परतोऽजात्या विदधाति परिक्रियाम् ॥५५१।। जानतापि तथा दोषं स्वमुक्त्वा परके गुरौ। परिज्ञाय विधातव्या महाशुद्धीः पटीयसा ॥५५२।।
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जितने अतीतकाल में तीर्थंकर हुए हैं अनंत केवलो जिन हुए हैं वे सर्व ही छद्मस्थ जीवोंकी महाशुद्धि गुरुके निकट होती है ऐसा बतलाते हैं ।।५५०॥
विशेषार्थ- गर्भावतरण आदि पांच कल्याणक धारी तीर्थंकर कहलाते हैं। संपूर्ण ज्ञानावरण का जिनके क्षय हो चुका है और केवलज्ञान युक्त हैं उन्हें केबलो कहते हैं । कर्म शत्रुओं को जीतने वाले जिन हैं इन सभी महापुरुषोंने उपदेश दिया है कि जो जीव छद्मस्थ है अर्थात् जबतक उसे केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है सब तक महामुनि आदि भी क्यों न हो किन्तु उसको अपने दोषोंकी आलोचना गुरु की साक्षीसे अवश्य करनी चाहिये । इसतरह शास्त्रोक्त विधि क्षपकको निर्यापक प्राचार्य समझाते हैं ।
निर्यापक कह रहे हैं कि हे क्षपक ! देखों चतुर वैद्य भी रोग युक्त होनेपर अपने रोग को दूसरे वैद्यको बतलाकर उससे रोग दूर करने की विधि को ज्ञातकर रोग का प्रतीकार करता है । अर्थात वैद्य स्वयं अपनी चिकित्सा नहीं करता, परवंद्यसे कराता है, वैसे ज्ञानो हो, आचार्यादि हो उन्हें भी अन्य आचार्यको साक्षीसे आलोचना कर अपना भव-रोग दूर करना चाहिये ।।५५१।।
क्षपक स्वयं आचार्य है चतुर है दोष निवृत्तिको विधि को स्वयं जानता है तो भी अन्य आचार्य के निकट स्वदोषों को कहकर विधिको जानकर अपनी महाशुद्धि कर लेनी चाहिये ।।५५२।।
भावार्थ---परके साक्षी पूर्वक अपराध निवेदन करके आत्मशुद्धिका विधान इसलिये भी है कि एक महान् क्षपक आचार्य को भी अन्य गुरु के निकट अपने दोषोंकी आलोचना करते देखकर सभी यतिजन उसी तरह प्रवृत्ति करेंगे, अर्थात् आत्माके शुद्धि का यही क्रम है ऐसा समझकर वे भी पर साक्षीसे शुद्धिकरण करेंगे । अन्यथा सर्व लोक स्वसाक्षीसे शुद्धि करेंगे, क्योंकि लोक प्रायः गतानुगतिक होते हैं।