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________________ सुस्थितादि अधिकार ततः सम्यक्त्व चारित्रज्ञान दूषणमादितः । एकाग्र मानसः सर्व, स्वमालोचय यत्नतः ॥५५३॥ विद्यते यद्यतीचारो मनोवाक्काय संभवः । आलोचय तदा सर्च निःशल्योभूतमानसः ॥५५४॥ कालेऽमुकत्र देशे वा जातो भावनयानया । दोषो ममेति विज्ञाय त्वमालोचय सर्वथा ॥५५५।। आलोचना द्विधा साधोरोघी पदविभागिका । प्रथमा मूलयातस्य परस्थ गविता परा ।।५५६।। इसलिये सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्रमें जो दोष हुआ हो उसकी हे क्षपक ! तुम एकाग्र मन पूर्वक आलोचना करो ।।५५३।। यदि मन वचन और कायसे अतीचार हुआ है तो उस सबकी नि:शल्य मन होफर आलोचना करो ॥५५४।। इस समय पर अमुक देश में इस भावना द्वारा यह दोष मेरेसे हआ था, इस तरह सब द्रव्य क्षेत्र आदि को ज्ञातकर हे यते ! तुम सब प्रकारसे आलोचना करो ॥५५५।। साधुकी आलोचना दो प्रकारकी बतायो है औघी और पद विभागी। इनमें से मलको ( मूल नामके प्रायश्चित्तको ) प्राप्त हुए यतिके तो पहली औघी आलोचना कही गयो है तथा मूलको छोड़ अन्य विषयक आलोचना पविभागी कही जाती है ॥५५६।। विशेषार्थ--आलोचनाके दो भेद हैं औघी और पदविभागी औघीको सामान्यालोचना और पदविभागीको विशेषालोचना भी कहते हैं। जिस साधुको दोक्षा महा अपराधसे नष्ट हो चकी है उसको औधी आलोचना करनी चाहिये अर्थात उसे तो इतना कहना होगा कि मेरे सर्व ही व्रत समाप्त हुए हैं मैं मूलस्थानको प्राप्त हूँपूनर्दीक्षाके योग्य हूँ । जिस साधुके ऐसा महा अपराध नहीं हुआ है उसको पविभागी आलोचना करना चाहिये अर्थात् इस महाव्रतमें अमुक दोष मुझसे हुआ है इत्यादि रूप कहना चाहिये । इसोको आगे कहते हैं ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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