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मरण कण्डिका
प्रोघेन भाषतेऽनपदोषो वा सर्वघातकः । इतः प्रभृति वांच्छामि त्वत्तोऽहं संयमं गुरो ! ।।५५७॥ अपराधोऽस्ति यः कश्चिज्जातो यत्र यथा यदा । ब्रूते पदविभागों तां सूरौ तत्र तथा तदा ।। ५५८ ॥ कंटकेन यथा विद्ध सर्वांगव्यापि वेदना | जायते निर्वृतस्तस्मिन्नुद्धृते शल्यवर्जितः २२५५६ ॥ दुःखव्याकुलित स्वान्तस्तथा शल्येन शल्पितः । निःशल्यो जायते यः स लभते निर्वृतिं पराम् ॥ ५६० ।। मायानिदानमिथ्यात्व भेदेन त्रिविधं मतम् । अथवा द्विविधं शल्यं द्रव्यभावात्मकं मतम् ॥ ३५६१।।
जिसके महादोष हुआ है या व्रतोंका सर्वनाश हुआ है वह सामान्य से कहता है कि हे गुरुदेव ! मेरे सर्व व्रत नष्ट हो चुके हैं मैं आजसे आपके द्वारा संयमको प्राप्त करना चाहता हूँ । इसतरह ओघो आलोचना होती है || १५७ ||
जिस काल में जिस देशमें, जिस प्रकारसे जो अपराध हुआ है उसकाल में उसदेश में उसप्रकार से उसदोषको आचार्यके समक्ष कहता है, यह पद विभागी आलोचना कहलाती है ।। ५५८ ।।
आलोचना माया शल्यको छोड़कर करनो चाहिये ऐसा कहते हैं
जिसप्रकार कांटेके लग जानेपर सर्वांग व्यापी वेदना होती है और उसके निकाल देनेपर शल्यरहित सुख होता है । उसीप्रकार माया मिथ्या और निदान शल्यसे युक्त मुनि दुःख से व्याकुलित मनवाला हो जाता है और जब माया आदि शल्यसे रहित होता है अर्थात् अपने दोषोंकी आलोचना करता है तब परम सुखको प्राप्त होता है ।।५५६।। ५६० ।।
शल्यके तीन भेद हैं- माया, निदान और मिथ्यात्व अथवा शल्यके दो भेद हैं, एक द्रव्य शल्य और दूसरा भाव गल्य । छल या कपट को माया शल्य कहते हैं । परभव में भोगोंकी वांछा करना निदान शल्य है । विपरीत श्रद्धाको मिथ्यात्व कहते हैं । द्रव्य और भावशत्यका स्वरूप आगे कह रहे हैं । १५६१ ।।