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________________ सुस्थितादि अधिकार भावशल्यं त्रिषा तत्र ज्ञानादि त्रयगोचरम् 1 सचित्ताचित्तमिश्रकम् ॥ ५६२ ॥ द्रव्यशल्यमपि त्रेधा अनुद्ध, ते प्रमादेन लभंते दारुणं दुःखं भावशल्य मनुद्ध त्य भयप्रमादलज्जाभिः दुःसहवेदनेक भावशल्ये पुन: सास्ति भावशल्ये शरोरिणः । ब्रध्यशल्यमिवानिशम् ।। ५६३ ।। ये म्रियन्ते विमोहिनः । कस्याप्याराधका न ते ॥५६४ ।। द्रव्येत्यनुद्ध से I जन्तोर्जन्मनि जन्मनि ॥ ५६५॥ [ १७९ उसमें भावशल्यके तीन भेद होते हैं ज्ञानका शल्य, दर्शनका शल्य और चारित्रका शल्य | द्रव्य शल्यके भी तीन भेद हैं सचित्त द्रव्यशल्य, अचित्त द्रव्यशल्य और मिश्र द्रव्यशल्य ।। ५६२ ।। विशेषार्थ - अकाल पठन आदि ज्ञानका शल्य है, शंका आदि दर्शनका शल्य है, समिति आदिमें अनादर करना चारित्रका शल्य । ये भाव शल्यके भेद हुए । दास आदि सचित्त द्रव्य शल्य है, सुवर्णादि अचित्त द्रव्य शल्य और ग्रामादि मिश्र द्रव्य शल्य है । भाव यह है कि साधु इन सबका त्याग किये हुए होते हैं किन्तु कदाचित् मनमें इन वस्तुओंके प्रति ममत्व हो तो वह द्रव्य शल्य है, क्योंकि यह मोह भाव भी कांटेकी तरह क्लेश कारक है | अकाल अध्ययन आदि तो साधु जीवनमें लगने वाले अतोचार हैं । यदि प्रमादवश भावशल्यको नहीं निकाला जाय तो संसारी जीव द्रव्य शल्यके द्वारा जैसे दारुण दुःख को प्राप्त होते हैं वैसे साधुजन भो इस भाव शल्यसे सतत् दारुण दुःखको प्राप्त होते हैं || ५६३ ॥ भय प्रमाद और लज्जाके कारण जो मोही क्षपक भावशल्य का त्याग किये बिना मरण करते हैं वे दर्शन आराधना आदि बार आराधनाओं में से किसीके भी आराधक नहीं होते हैं || ५६४ || यदि द्रव्य शल्यका निष्कासन नहीं किया जाय तो एक भवमें दुःसह वेदना होती है, किन्तु भावशल्य को दूर न किया जाय तो इस जीवको जन्म जन्ममें दुःसह वेदना भोगनी पड़ती है ।।५६५।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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