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मररएकण्डिका
चारित्रं शोधयिष्यामि काले श्व प्रभूता वहम् । शेभुषोमिति कुर्धाणा गतं काल न जानते ॥५६६।। रागद्वेषादिभिर्भग्ना ये म्रियन्ते सशल्यकाः । दुःखशल्याकुलेभीमे भवारण्ये भ्रमति ते ॥५६७।। उद्ध त्य कुर्वते कालं भावशल्यं त्रिधापि ये । प्राराधन प्रपद्यते ते कल्याण वितारिणी ॥५६८॥
कोई क्षपक ऐसा बुद्धि या विचार करे कि मैं कल या परसों अपने चारित्रका शोधन [ आलोचना ] करूगा वह क्षपक गये हुए काल को नहीं जानता है ।।५६६॥
भावार्थ-जो मनि ऐसा विचार करता है कि मैं अभी आलोचना नहीं करता, फिर कभी करूगा, कल परसों करूगा, सो ऐसा सोचने वाला कालको नहीं जानता कि कब मृत्यु आयेगो और मैं बिना आलोचना किये ही मर जागा । तथा अधिक दिन व्यतीत होनेपर अतीचार विस्मृत भी हो जाते हैं। अतः साधुको तो हमेशा हो जब अतोचार लगे तभी गुरुके समक्ष आलोचना करके शुद्धि करनी चाहिये और क्षपकको संन्यासके अवसर पर तो सर्व आलोचना शोध हो कर लेनी चाहिये।
आयुका कोई निश्चय नहीं कि कब पूर्ण हो जाय । जो राग द्वेष आदिसे भग्न हुए शल्य सहित मरण करते हैं वे दुःखरूपी कांटोंसे मरे भयंकर भव रूपो अरण्य में भ्रमण करते हैं ।।५६७॥
जो तीन प्रकारके भावशल्यको निकालकर मृत्युको करते हैं वे कल्याण को देनेवाली आराधनाको प्राप्त करते हैं ।।५६८।।
विशेषार्थ---भाव शल्योंका स्वरूप पहले बता दिया है, इन शल्योंको हृदयसे निकाल कर अतीचारोंको आलोचना गुरुके समक्ष करके प्रायश्चित्तसे जो अपने आत्मा को निर्मल बनाते हैं और सल्लेखना करते हैं उन क्षपक साधुओंके आराधना सिद्ध होती है । दीक्षासे लेकर मृत्यु तक जो तपश्चरण किया जाता है उसकी सफलता आराधना की प्राप्तिसे होती है।