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सुस्थितादि अधिकार
[ १७३ सम्यक्त्यवृत्तनिःशल्या दूरोत्सारित गौरवाः । विहरंतिविसंगा ये कर्म सर्व धुनंति ते ॥५६६।। इति ज्ञात्वा महालाभं निःशल्यीभूतचेतसां । शुद्धदर्शनचारित्रो विहरस्वाप शल्यकः ॥५७०।। सम्यगालोचयेत्सर्वमनुद्विग्नमविस्मृतम् । अनिगूढमनिर्मोहं निर्मूलमपगौरवम् ॥५७१।। भयमानमृषामाया मुश्तेन प्रांजलात्मना । बालेनेवाभिधेयानि कृत्याकृत्यानि धीमता ॥५७२।। सम्यक् स्वज्ञानवृत्तेषु विधायालोचनां यते । कुरु सल्लेखनां सम्यक् क्रमेणापास्तकल्मषः ॥५७३॥
. --- जो सम्यक्त्व और चारित्र संबंधी शल्यसे रहित हैं गौरव-गारवको दूरसे ही जिन्होंने त्याग दिया है निःसंग अर्थात् परिग्रह रहित हुए वायुवत् विहार करते हैं वे साधुजन सर्व कर्मका नाश करते हैं ।।५६९।।
आचार्य क्षपकको उपदेश द्वारा समझा रहे हैं कि हे क्षपक ! इसप्रकार जिनका शल्य रहित चित्त है ऐसे निःशल्य चित्तवाले साधुओंके आराधना प्राप्ति रूप महालाभ होता है ऐसा जानकर तुम शुद्ध दर्शन और शुद्ध चारित्र रूप तथा शल्य रहित हो विहार-आचरण करो ।।५७०।।
हे क्षपक ! तुम खेद रहित सम्यक आलोचना करो वह आलोचना ऐसो होवे कि जो दोष विस्मृत हुए हों उन्हें स्मरण करके आलोचना करो। किसी भी दोष को बिना छिपाये आलोचना करो, गौरव रहित और मोहरहित हो दीक्षासे लेकर आजतक जितने अतिचार लगे हों वे निर्मूलतया-पूर्णरूपसे गुरुके समक्ष निवेदन कर दो ॥५७१।।
भय, मान, असत्यसे रहित, सरल मनसे बालकके समान सभी कार्य और अकार्योका निवेदन बुद्धिमान् क्षपक द्वारा होना चाहिये । अर्थात् सरल स्वभाबसे जैसे बालक अपने योग्य अयोग्य कार्यों को बता देता है वैसे क्षपकको अपने द्वारा किये गये कार्य अकार्य को निर्यापक से निवेदन कर देना चाहिये ।।५७२।।