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________________ मरण कण्डिका इत्युक्त सरिणोत्कृष्टां चिकीर्षः क्षपकोमृति । जात सर्वांग रोमांचः प्रमोद भर विह्वलः ।।५७४।। चैत्यस्य सम्मुखः प्राच्यामदीच्यां वा दिशः स्थितः । कायोत्सर्गस्थितो धीरो भूत्वा कापेऽपि निस्पृहः ।।५७५।। मुक्तशल्य ममत्वोऽसावेकत्वं प्रतिपद्यते । शल्यमत्पाटयिष्यामि पावमूलेगशिनः ॥५७६।। हे यते ! सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रमें जो अतीचार हुए हैं उनकी । आलोचना करके सम्यक क्रम पूर्वक जिसका पाप नष्ट हुआ है ऐसे तुम सल्लेखना को करो ॥५७३।। इसप्रकार आचार्य द्वारा क्षपकको उपदेश दिये जानेपर उत्कृष्ट समाधिमरण को करने का इच्छक क्षपक सर्वांगमें रोमांचित हो जाता है। अत्यंत प्रसन्नता से हर्ष विभोर होता है ।।१७४।। विशेषार्थ-निर्यापक द्वारा कल्याणकारी अत्यंत वैराग्य वर्द्धक तथा धर्म में गाढ अनुराग को उत्पन्न करनेवाला उपदेश सुनते हो क्षपकके सारे शरीरमें आनंदसे रोमांच आ जाते हैं । वह क्षपक विचार करता है कि अहो ! ये गुरुवर्य हमारे अकारण बंधु हैं, कितनी हृदयस्पर्शी वाणीसे मुझे समझा रहे । अहो ! इन्हें सचमुच में रत्नत्रय मार्ग में महान् भक्ति है जिससे इतना प्रयत्नशील होकर मुझे आलोचनामें उद्यत कर रहे हैं । ये धन्य हैं, यही कर्णधार हैं ये ही मुझे संसार समुद्रसे पार करेंगे, इत्यादि । शुद्ध आलोचनाको मैं करता हूँ ऐसी गुरुको स्वीकृति देकर उक्त क्षपक जिन प्रतिमा के सम्मुख या पूर्व अथवा उत्तर दिशाके तरफ मुख करके खड़ा हो जाता है और शरीर में भी निःस्पृह वह धोर कायोत्सर्ग करता है ॥५७५।। विशेषार्थ--गुरुको दोषोंका निवेदन करनेके पहले विधिपूर्वक-सामायिक दण्डक, योस्यामि दण्डक आवर्त शिरोनति युक्त सिद्ध भक्ति करके कायोत्सर्ग में लीन होता है । इससे दोषोंका स्मरण हो जाता है । शल्य और ममत्व को जिसने छोड़ दिया है ऐसा यह क्षपक एकत्य भावको प्राप्त होता है। मैं आचार्यके चरण मूलमें शल्यको उखाड़कर फेंक दूंगा ऐसा विचार करता है ।।५७६।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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