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________________ सुस्थितादि अधिकार [ १७५ इत्य के त्वगतः कृत्स्नं दोष स्मरति यत्नतः । इत्थं स प्रांजलीभूय सर्व संस्मृत्य दूषणं ॥५७७॥ एति शल्यं निराकतुं सर्व संस्मृत्य दूषणं । आलोचनादिकं कत्तुं युज्यते शुद्धचेतसः ॥५७८ ।। आलोचनादिकं तस्य संभवेच्छुछ भावतः ।। अपराण्हेऽथ पूर्वाण्हे शुभलग्नादिके दिने ।।५७६।। निःपन्नः काकः शुष्कपादपः कंटकाचितः । विच्छायः पतितः शीणों ववदग्धस्तडिद्धत: ॥५८०।। - - - - इसतरह एकस्वभावको प्राप्त हुआ क्षपका समस्त दोषको स्मरण करता है, अत: इसप्रकार प्रांजल होकर सर्व दोष स्मरण में लाता है ।। ५७७।। भावार्थ-जब क्षपक एकत्व भावमय होता है तब मैं अतीचार रहित हैं मैं तो केवलज्ञान दर्शन स्वभाववाला हूँ। मुझसे शरीर, रागद्वेष शल्य, गारव आदि सब विकार भिन्न हैं, शरीरके नाशसे इसके मान अपमानसे मेरा कुछ भी बिगड़ता नहीं। मैं अब मायाको छोड़कर अतीचारोंको दूर करूंगा । ऐसा विचार कर क्षपक दोषोंको स्मरण करता है कि मुझसे कौन कौनसे दोष हुए हैं ? कब हुए हैं इत्यादि । सर्व दोषोंका स्मरण करके शल्यका निराकरण करने के लिये गुरुके निकट आता है। क्योंकि शुद्ध मनवालेके हो आलोचना आदि करना योग्य होता है ।।५७८।। आलोचनाके लिये उचित काल आदिका निर्देश करते हैं उस क्षपकको शुद्ध भाबसे आलोचना आदि संभव है अर्थात् आलोचनाके समय भाव शुद्ध होना चाहिये, पूर्वाह्न या अपराह्नके समय में, शुभ दिन, शुभ तिथि और शभ लग्न में आलोचना करनी चाहिये । यहा भाव और काल आलोचनाके लिये कैसा हो यह बताया है ।।५७९।। आलोचनाके लिये योग्य स्थान जिस स्थान पर पत्तोंसे रहित वृक्ष हो, सूखा वृक्ष, कांटेदार वृक्ष, कडुआ निब आदिका वृक्ष, छाया रहित या गिरा हुआ, जोणं, अग्निसे या बिजलीसे जला हुआ वक्ष हो वह स्थान आलोचनाके योग्य नहीं है ॥५८० ।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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