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________________ १७६ । मरकण्डिका तृणपाषाण क्षुद्राणामरूप सस्यानां देवतानां निकेतनम् । काष्ठास्थिपत्रांस्वादि संचयाः ।। ५८१ ॥ शून्यवेश्म रजो भस्म वर्चः प्रभृति बूषिता 1 यद्रदेवकुलं त्याज्यं निद्यमन्यदपीदृशम् चिकारयिषतां शुद्धां साधुमालोचनां स्फुटम् । सूरीणां सर्वथा स्थानमसमाधान कारणम् ।।५८३ ॥ ।।५८२ ।। सर: जिनेन्द्र यक्ष नागादि मंदिरं चारुतोरणम् । स्वच्छ पयः पूर्ण पद्मिनीखंडमंडितम् ।।५८४ ।। पादपैरुन्नतः सेव्यं सर्व सत्वोपकारिभिः । आरामे मंदिरे नम्रः सज्जनैरिव भूषिते ।।५६५॥ तोरमक्ष मनोहरम् । समुद्रनिम्नगादीनां सच्छायं सरसं वृक्षं पवित्रफलपल्लवं ।। ५६६ ।। क्षुद्र अल्पशक्ति वाले देवोंका स्थान जहांपर घास, पत्थर, काष्ट, हड्डी, पत्ते और मिट्टी धूलिके ढेर लगे हों, धूलि, राख, मल आदि से भरा हुआ सूना घर या कोई स्थान हो, या रुद्र आदिका देवालय हो ये सब स्थान आलोचनाके योग्य नहीं हैं, तथा इन्ही के समान अन्य कोई निदनीय स्थान भी योग्य नहीं है त्याज्य है ।।५८१ ।।५८२ ।। जो निर्यापकाचार्य क्षपक द्वारा परिशुद्ध आलोचना करवाना चाहते हैं उन्हें उक्त असमाधान - अशांति कारक स्थान सर्वेथा छोड़ देने चाहिये || ५८३ ।। आलोचना के अयोग्य स्थानोंको कहकर अब योग्य स्थानोंका निर्देश करते हैं--- श्री देवाधिदेव जिनेन्द्र प्रभुका मंदिर हो अथवा सुंदर तोरणसे युक्त यक्ष नागादिका मंदिर हो । कमलवनोंसे सुशोभित स्वच्छ जलसे पूर्ण सरोबर हो । सब जीवोंके लिये उपकारक ऐसे उन्नत वृक्षोंसे मंडित स्थान हो, नम्र सज्जनोंके द्वारा भूषित मंदिर में अथवा सज्जनोंके समान वृक्षोंसे भूषित उद्यान आलोचना योग्य स्थान होता है । इन्द्रियोंके लिये मनोहर ऐसे समुद्र और नदीके किनारे, छायादार, पवित्र पत्र पुष्पोंसे फलोंसे युक्त रसोले वृक्षोंसे युक्त स्थान आलोचना के लिये श्रेष्ठ कहा जाता है ।। ५८४ ।। ५८५ । । ५६६ ॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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