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सुस्थितादि अधिकार शस्तमन्यदपि स्थानमुपेत्य गणनायकः । आलोचनामसंक्लेशां क्षपकस्य प्रतोच्छति ॥५८७॥ जिना या दिशः प्राच्या कौर्या वा स सन्मुखं । शृणोत्यालोचनां सूरिरेकस्यको निषण्णवान् ॥५८८।।
उपयुक्त स्थानोंके समान अन्य भी कोई प्रशस्त स्थान हो उस स्थान में जाकर निर्यापक आचार्य क्षपकको संक्लेशरहित शुद्ध पालोचनाको सुनते हैं ॥५८७।।
___ आलोचनाको सुनते समय आचार्य को किस तरह बैठना चाहिये यह बताते हैं
जिनप्रतिमाके सन्मुख बैठकर या पूर्व दिशामें अपना मुखकर क्षपकका मुख स्तर में करे अपना जनर अपना और क्षपकका पूर्व दिशामें मुख कराके बैठकर एकाकी आचार्य एक क्षपकको आलोचनाका श्रवण करता है ।।५८८।।
। विशेषार्थ-समाधिके इच्छुक क्षपकको आलोचना किस स्थानपर किसकाल में कैसे स्थित होकर किस भावपूर्वक होती है इन विषयोंका बहुत ही सुदर वर्णन है । शुभ महत्त, शुभ लग्न, शुभ नक्षत्र आदिके रहनेपर आलोचना योग्य काल है। जिन मंदिर, मनोहर उद्यान, कमलोंसे परिपूर्ण स्वच्छ सरोवर, नदो आदिका तट अथवा ऐमे अन्य काई प्रशस्त स्थान हों वे सब आलोचनाके योग्य माने जाते हैं। पूर्वाभिमुख वैठना इसलिये प्रशस्त है कि पूर्व में सूर्यका उदय होता है सूर्योदय के समान अाराधना प्रकाशमान उन्नत होतो जाय इस अभिप्रायसे पूर्वाभिमुख होकर बैठता है उत्तर में विदेहमें सोमंघर आदि तीर्थकर सदा हो विद्यमान रहते हैं अत: उत्तराभिमुख होना प्रशस्त है । जिनप्रतिमा संमुख बैठना तो साक्षात् शुभ परिणामका कारण होने से प्रशस्त है । एक आचार्य एक ही क्षपककी आलोचना सुनते हैं अनेक क्षपककी नहीं । यदि अनेक गुरु पालोचना सुननेको बैठे तो क्षपकको लज्जा आना संभव है लज्जासे वह अपने दोष ठोकसे नहीं कहेगा । अनेक क्षपकोंके दोष एक साथ एक आचार्य अवधारण नहीं कर सकेगा। अत: एक क्षपक और एक हो आचार्य रहे । हां यदि कोई आर्यिकादि आलोचनामें उद्यत है तो आचार्य के निकट एक मुनि उपस्थित हो या अन्य आर्यिकाके साथ आलोचक आर्यिका होवे तब आचार्य उसको आलोचना सुनते हैं । क्षएक जब आलोचना कर रहा है तब आचार्य उसे तत्परतासे सुने, अन्यथा क्षपक आलोचना करने में निरत्साह हो जायगा