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मरणकण्डिका
छंद उपजाति--- कृत्वा त्रिशुद्धि प्रतिलिख्य सूरि प्रणम्य भूर्धस्थित पाणिपमः। आलोचना मेष करोति मुक्त्वा दोषानशेषानपशल्यदोषः ॥५८६।।
(२३) इति पालोचना।
कि ये गुरु मुझ जैसे क्षपकको अन्तिम आलोचना भी ठीकसे नहीं सुनते, इन्हें क्या सुनाया जाय ? और आलोचक क्षपक उस समय माया, भय रागद्वेष आदि परिणामोंको छोड़कर मालोचना करे यह भाव शुद्धि है । इसप्रकार शुभकाल, प्रशस्त स्थान में प्रसन्न मन युक्त हो आचार्य निर्मल परिणाम युक्त हुए क्षपकको आलोचना सुनते हैं ।
उक्त आलोचनाके स्थान पर नेत्र से तथा पीछांस शोधनकर शांत भावसे क्षपक को बैठ जाना चाहिये, मन, वचन, कायकी शुद्धि करके कृतिकर्म सहित आचार्यको नमस्कार करे, कैसा है क्ष पक ? जिसने शल्प दोषका त्याग कर दिया है तथा जिसने पीछी से युक्त दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर रखे हैं । ऐसा क्षपक संपूर्ण दोषोंको कहकर आलोचना करता है ।।५८६॥
विशेषार्थ-देव वंदना प्रतिक्रमण आदि कार्योको यतिजन कृतिकर्म सहित करते हैं। प्रत्येक कार्यमें पृथक् पृथक् भक्तिपाठ होता है, जैसे देववंदनामें चैत्यभक्ति और पंचगुरु भक्तिका पाठ करते हैं । भक्ति पाठ करते समय सर्वप्रथम विज्ञप्ति करके मैं अमुक भक्ति करता हूँ ऐसी प्रतिज्ञा करके-"नमोस्तु देववंदना क्रियायां भावपूजा वंदनास्तवसमेतं चैत्यभक्ति कायोत्सर्ग कुह" इसतरह प्रतिज्ञा करके तीन आवत ( हाथ जोड़ कर तीन बार विशिष्ट रोतिसे घुमाना ) एक शिरोनमन करके सामायिक दण्डक करके तीन आवर्त्त एक शिरोनमन सहित कायोत्सर्ग करे, पुनः तीन आवादि सहित थोस्सामि दण्डक करके पुनः आवर्तादि कर जो भक्तिपाठ है उसे करे । इसतरह क्रियामें जितने भक्तिपाठ आगममें बताये हैं उनमें यही आवतं आदिकी पुनः पुनः विधि होती है । अर्थात् एक भक्तिमें बारह आवर्त, चार शिरोनमन तथा दो प्रणाम होते हैं। यहां क्षपकको आचार्य सानिध्य में आलोचना करना है अत: आचार्य वंदना क्रियाको विधि होगी, इसमें सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति और आचार्य भक्तिका पाठ होगा, इन भक्तियों को उक्त प्राव दि पूर्वक करके आचार्यको पंचांग नमस्कार करना चाहिये । पुनश्च