________________
सुस्थितादि अधिकार
अनुकंप्यानुमान्यं हि यदुष्टं स्थूलमन्यथा । छन्नं शब्दाकुलं सूरि सूर्य व्यक्त च तत्समं ।। ५६० ।। सूरि भक्तेन पानेन प्रदानेनोपकारिणा । विनयेनानुकम्प्य स्वं दोषं वदति कश्चन ॥५६१ ॥
[ १७९
अपनी आराधना सिद्धि हो एतदर्थं योगभक्ति करनी चाहिये । इसप्रकार कृतिकर्म करके विनयपूर्वक आलोचना करें ।
आलोचना अधिकार समाप्त ( २३ )
गुण दोष नामा चौबीसवां अधिकार
अब आलोचना करते वक्त जो दोष संभव हैं उन्हें क्रमसे बताते हैंआलोचनाके दश दोष हैं- अनुकंपित, अनुमानित, यद्दृष्ट, स्थूल सूक्ष्म, छत, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त और तत्सेवो ।। ५९० ।।
इन दोषोंका विवरण इसप्रकार है— गुरुके मनमें अपने विषयमें दया उत्पन्न करके आलोचना करना अनुकंपित दोष है । गुरुके अभिप्रायको किसी उपायसे जानकर आलोचना करना अनुमानित दोष है । जो दोष किसीने देखे हैं केवल वही कहना यद् हृष्ट दोष है। छोटे दोष छिपाकर केवल बड़े दोष कहना स्थूल दोष है, और बड़े अपराध छिपाकर सूक्ष्मको कह देना सूक्ष्म दोष है 1 जहां सामूहिक प्रतिक्रमण आदिके कारण कोलाहल हो रहा है उस वक्त आलोचना करना शब्दाकुलित दोष है । एक आचार्यको दोषोंका निवेदन कर पुनः अन्य आचार्य के निकट दोष निवेदन करना बहुजन दोष है | अज्ञानी गुरुको दोष बताना अव्यक्त दोष है और जिस दोष की आलोचना करना हो वह दोष जो गुरु करता है उसके पास आलोचना करना तत् सेवो दोष है । इसका विस्तृत कथन कारिकाओं द्वारा आगे और भी कर रहे हैं ।
अनुकंपित दोष
आचार्य के लिये आहार पानी उपकरण प्रदान करके, तथा विनय द्वारा अनुकंपा उत्पन्न करके कोई क्षपक आलोचना करता है ।।५९१||