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मरणकण्डिका
आलोचितं मया सवं भविष्यत्येष में गुणं । करिष्यतीति मन्तव्यं पूर्व पालोचनामलः ॥५६२।। कश्चित क्रीत्वा विषं भुक्ते नरो मत्वाहितं हितं । जीवितार्थी यथा मूर्खस्तथेयं शुद्धिरिष्यते ॥५६३॥ मधुरालोचनषादौ विपाके सेविता सती । तीव' करोति किपाक फल भुक्तिरिवासुखं ॥५६४॥
भावार्थ---स्वतः भिक्षा लब्धि संपन्न होनेसे आचार्यको प्रासुक, उद्गम आदि दोषोंसे रहित आहार पानीसे वैयावृत्य करके, पोछी कमंडलु प्रदान करके आचार्यके मनमें अपने प्रति दया भाव उत्पन्न कराके कोई क्षपक आलोचना करता है। यह अनुकंपित दोष है।
___आचार्यको आहार आदिसे संतुष्ट एवं दयायुक्त करनेपर मेरे द्वारा सर्व आलोचना हो जायगी, इससे मुझे बड़ा लाभ होगा अर्थात् आहारादिसे संतुष्ट हुए आचार्य मुझे अल्प प्रायश्चित्त देंगे इस तरह विचार वह क्षपक करता है । यह आलोचना का पहला दोष है ।।५९२।।
भावार्थ-क्षपक अपने मनमें गुरुके प्रति इसतरह तुच्छ विचार करता है कि मेरे उपकरण प्रदानसे ये गुरुजन संतुष्ट होवेंगे और उससे कम प्रायश्चित्त देंगे । सो गुरुके प्रति यह मानसिक अविनय है अतः इसतरह की आलोचना सदोष मानी जातो है।
जैसे कोई जीवनको चाहनेवाला पुरुष विष को खरीदकर खाता है और उस अहित को ही हित मानता है तो वह मूर्ख कहलाता है । उसोप्रकार आत्मशुद्धि-रत्नत्रय शालिके लिये क्षपक आलोचना करता है और उससे गुरु को उपकरण दानादिके छलसे पुनः माया शल्यको पुष्टि करता है, अत: विषको खरीदकर खाने वालेके समान ही यह क्षपक है, उसकी शुद्धि वैसी ही है अर्थात् ऐसी आलोचनासे कदापि शुद्धि नहीं होतो ।।५९३।।
अनुकंपित दोष युक्त की गयी यह आलोचना प्रारंभमें मधुर लगती है। [ क्योंकि इससे कम प्रायश्चित्त मिलनेकी आशा है ] किन्तु विपाककालमें-आगामी