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________________ सुस्थितादि अधिकार [ १८१ रक्तस्य कृमिरागेण शुसिलक्षिारसेन वा । वस्त्रस्य जायते जातु नैषा शुद्धिःपुनध्र बम् ।।५६५॥ घोरराधारितं धन्याः कुर्वते दुश्वरं तपः । दुःखाम्भसो भवाम्भोधे? स्तरात्तारकं परम् ॥५६६।। क्लमापहारपार्श्वस्थ सुखशीलतया तपः । न प्रकृष्ट मलं कर्तुं वदत्येवमधार्मिकः ॥५६७।। पार्यस्थस्वमनारोग्यं दौर्बल्यं वह्निमंदता । भगवस्तव विज्ञाता मदीयाः सकलाः स्फुटम् ॥५६८।। -. -- - .. कालमें [सदोष आलोचनासे-भवभ्रमण होनेसे ] तीव्र दुःखको उत्पन्न करती है। जैसे किपाक फल देखने में सुदर और खाने में मधुर होने पर भी विपाक काल में मरणका दुःख उत्पन्न करता है ॥५९४।। कृमिरंग से रंगे हए वस्त्रको अथवा लाक्षा रसके रंगसे रंगे हुए बस्त्रकी शुद्धि कदाचित् (सफेद साफ होना) हो सकती है किन्तु अनुकंपित दोष युक्त की गयी आलोचनासे निश्चयसे शुद्धि नहीं हो सकती ।।५९५।। भावार्थ-जैसे कृमि रंगादिसे रंगा वस्त्र सफेद नहीं होता बसे मायाचारसे की गयो आलोचनासे रत्नत्रयको शुद्धि नहीं होतो है । । (२) अनुमानित दोष क्षपक आचार्य समक्ष मानो अपनो धार्मिकता दिखाता हुआ कहता है कि जिसे धीर पुरुषोंने किया है जो दुःस्वरूप जल वाले दुस्तर ऐसे भवसागरसे पार उतारने वाला है ऐसे कठोर तपको जो मुनिजन करते हैं वे धन्य हैं ।।५९६।। मैं इसप्रकारके उग्र तपको करने में समर्थ नहीं हूँ। इसप्रकार वह अधार्मिक क्षपक अपना बल छिपाकर एवं पार्श्वस्थ होनेसे सुख में आसक्त हुआ गुरुसे कहता है। अर्थात् गुरुसे मैं कमजोर हूँ, मेरेमें उपवासको सामर्थ्य नहीं ऐसा कहता है ।।५६७।। उक्त क्षपक कह रहा है कि हे भगवन् ! मेरे पाश्वस्थत्व, रोगीपन, दुर्बलता, मंदाग्नि रूप सब कमियोंको आप स्पष्ट रूपसे जानते ही हैं ॥५९८।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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