________________
१८२ ]
मरकण्डका
यालोचयामि निःशेषं कुरुषे प्रसादेन विशुद्धिमम
त्वदीपेन
यद्यनुग्रहम् । जायताम् ॥५६॥
हरिमालोचनां यतेः ।
कुर्तामाि भवत्यानोचनादोषो द्वितीयः शस्यगोपकः ॥ ६००॥
सेव्यमानो यथाहारो विपाके दुःखदायकः ।
श्रपथ्यः पथ्यशेमुष्या तथेयं शुद्धिरीरिता ॥ ६०१ ॥ परैः सूचयते दृष्टमदृष्टं या निग्रहति । महादुःखफला तेन मायायल्ली प्ररोप्यते ।।६०२ ||
यदि
दृष्टम दृष्ट च नालोचयति दूषणं । तदात्यालोचनादोषस्तृतीयो दोषवर्धकः ।।६०३॥
आप मुझपर यदि अनुग्रह करें तो समस्त आलोचना को करता हूँ । आपके प्रसादसे मेरी शुद्धि हो जाय ।। ५९९||
इसप्रकार आचार्यको कहकर उनके निकट आलोचना करने वाले क्षपक मुनि के शल्यका गोपन करने वाला दूसरा अनुमानित नामका दोष होता है || ६०० ||
जिसप्रकार अपथ्य भोजनका यह पथ्यकारक है ऐसी बुद्धिसे सेवन किया जाता है तो वह विपाक में दुःखदायक होता है । उस प्रकार गुरु को अपनी कमजोरी बताकर कम प्रायश्चित्त का आश्वासन लेकर आलोचना करनेवालेकी आलोचना विपाक कालमै दुःखदायक होती है। उससे शुद्धि नहीं होती ।। ६०१ ।।
(३) यद् दृष्ट दोष —
जो क्षपक परके द्वारा देखे दोषों को गुरुके समक्ष कहता है और जो दोष नहीं देखा हो उसको छिपा देता है, ऐसे उस क्षपक द्वारा महादुःखरूप फलवाली मायाबेल रोपी जाती है, अर्थात् देखे दोष बताना और नहीं देखे हुए को छिपाना यही माया है। इससे क्षपकको महान् कष्ट उठाना पड़ता है ॥ ३६०२॥
यदि दृष्ट और अदृष्ट-परके द्वारा देखे हुए और के दोषोंकी आलोचना क्षपक नहीं करता है तो उसका वह आलोचना का तीसरा दोष होता है ||६०३ ॥
नहीं देखे हुए दोनों प्रकार अपराध को बढ़ाने वाला