________________
सुस्थितादि अधिकार
छंद रथोद्धता -
दोषशुद्धिरपचेतसा पुनः कल्मषेरिति कृता निधीयते । वालुकासु संवतोऽवटः पुनरहित ॥। ६०४ ॥ स्थूलं व्रतातिचारं यः सूक्ष्मं प्रच्छाद्य जल्पति । पुरतो गणनाथस्य सोऽहंद्वाच्य बहिर्भवः ||६०५||
न चेद्दोषं गुरोरने स्थूलं सूक्ष्मं च भाषते । विनयेन तदा दोषश्चतुर्थ: कथनाश्रयः ।।६०६॥ छंद शालिनी
[ १८३
बाह्या
प्राकारेणातिशुद्धोऽपि साधुनतः शुद्धि याति मायाविशल्यः । भूगारी वा कांसिकः शोध्यमानो बाह्य शुद्धि कश्मलांतः प्रयाति ।। ६०७ ।।
मैं दोषकी शुद्धि करता हूं ऐसा सोचकर क्षपक आलोचना में उद्यत हुआ था किन्तु बिना देखे दोषको छिपाने को मायारूप कल्मष द्वारा उसी दोषको वह नष्टबुद्धि करता है । जैसे कोई बालमें खड्डा खोदता है तो वह खड्डा खोदते समय हो पुनः बालसे भर जाता है । अर्थात् बालुमें खड्डा खोदना जैसे व्यर्थ है वैसे दृष्ट दोष को छिपाकर शेष की आलोचना करना व्यर्थ हूँ || ६०४ ||
(४) बादर दोष --
जो क्षपक सूक्ष्म दोषको छिपाकर व्रतोंके स्थूल अतोचार को आचार्य के समक्ष कहता है वह क्षपक अर्हन्त देवकी वाणीसे वहिर्भूत है । उसको आलोचना सदोष है ।।६०५।।
गुरुके आगे सूक्ष्म और बादर दोनों दोषोंको विनयपूर्वक नहीं कहता है तो वह उसकी आलोचनाका चौथा दोष है ||६०६ ॥
छलपूर्वक आलोचना करनेवाला क्षपक बाह्य आकारसे अति शुद्ध प्रतीत होता है, किन्तु भावादि शल्यवाला वह साधु अंतरंगको शुद्धिको प्राप्त नहीं होता । जैसे कांसेका कमंडलु या झारी साफ करते हुए भी बाहरसे साफ स्वच्छ होती है अंदर में मैली-हरी नोली रहती है ||६०७ ।।