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________________ १८४ ] मरणकण्डिका प्रासने शयने स्थाने संस्तरे गमने तथा। आगाअपरामर्श गभिण्या बालवत्सया ॥६०८।। परिविष्टेऽभवद् दोषो यः सूक्ष्मः स निगधते । हर प्रच्छा या मिनतालाउ दुखः ॥६०६॥ स्थलं सूक्ष्मं च वेदोषं भाषते न गुरोःपुरः । मायावोडामदाविष्टः सदा दोषोऽस्ति पंचमः ॥६१०॥ छद उपजातिरसेन पोतं जतुना प्रपूर्ण फूटं विपाके कटकं गृहीतं । यथा तत्थं विहितं विधत्ते दिशोधनं तापमपारमुग्रम् ॥६११॥ (५) सूक्ष्म दोष जो क्षपक अपने सूक्ष्म दोषों को बताता है कि मैंने आसन पर बैठते समय शोधन नहीं किया, शयनमें, खड़े होने में पोछोसे मार्जन नहीं किया। गमन करते समय हिमाच्छादित भूमिपर गमन किया, वर्षा आदिके कारण अप्रासुक जलसे गीले हुए शरीर को सूखे बिना ही हाथोंसे पोंछ डाला । आहार करते समय जो स्त्री पांच माहसे अधिक गर्भभार को धारण कर रही है उससे आहार लिया । गोदीके बालकको स्तनपान कराके आयी हुई स्त्रोसे दिया हुआ आहार लिया है । इसप्रकारके सूक्ष्म-छोटे छोटे दोष बड़े दोषोंको छिपाकर जिसके द्वारा कहे जाते हैं वह क्षपक जिनवाक्यसे परांमुख है, सदोष है ॥६०८॥६०६।। सूक्ष्म और बादर दोषोंको यदि गुरुके आगे नहीं कहता है तो उस क्षपकके सदा माया लज्जा और गर्वसे भरा हुआ पंचम दोष है इस दोष को करने वाले क्षपकका यह अभिप्राय रहता है कि यदि मैं बड़े दोष कहूँगा तो आचार्य बड़ा प्रायश्चित्त देंगे या मुझे त्याग देंगे । अथवा इतने छोटे दोष हो बता रहा है तो बड़े क्यों नहीं कहेगा । ऐसा विश्वास आचार्यको दिलाने हेतु छोटें दोषका कथन करता है ।।६१०।। जिसप्रकार नकली कड़ा ( हाथका कंगन पाटला आदि ) बाहरसे सुवर्णसे मढा रहता है और अन्दर लाखसे पूरित होता है, उस कड़ेको खरीद लेवे तो आगे वह
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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