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________________ सुस्थितादि अधिकार [ १८५ आये ते द्वितीये वा दोषः संपद्यते यदि । सूरे ! कस्यापि कम्यस्व विशुद्धचति तदा कथम् ॥६१२॥ इत्यन्यव्याजतश्छन्नं पृच्छयते देत्स्वशुद्धये । तवानी जायते दोषः षष्ठः संसारवर्द्ध कः ॥६१३॥ भोजने च कृतेऽन्येन तृप्तिरन्यस्य जायते । अपरस्य तदाशुद्धिविहिता परभर्मणा ॥६१४॥ आत्मशुद्धि विधत्ते यः प्रपृच्छय परभर्मणा । अपरेणौषधे पोते स्वस्यारोग्यं करोति सः ॥६१५।। - - - --- -- तापकारी होता है। उसप्रकार सूक्ष्मदोष को बताकर बड़े दोषको छिपाने वाली आलोचना करे तो दोष शुद्धि नहीं होती, बल्कि अपार और उग्र ऐसा संताप ही होता है ।।६१।। भावार्थ-~-बड़े बड़े दोष छिपाकर छोटे दोष गुरुको कहना उसतरह निःसार है जिसतरह अंदरसे लाख भरे कड़े के ऊपर सुवर्ण चढ़ाना है । ऐसा कड़ा कोई खरीदे तो उसे कुछ लाभ नहीं है क्योंकि आगे उसका कुछ भी मूल्य नहीं रहता । ऐसे ही बड़े दोष या पापको छिपाकर छोटे छोटे बताने से गुरु समझेगा कि पापसे अत्यंत डरनेसे यह छोटे भी दोष कह रहा है यह बहुत ही पापभीरु है इत्यादि । गुरुको ऐसी प्रतीति कराने हेतु क्षपक मायाचार करता है, ऐसा क्षपक सुवर्णका झोल चढ़े कड़ेके समान भीतर निःसार और बाहर चमकोला जैसा है । (६) छन्म दोष क्षपक छलसे आचार्यको पूछता है कि हे गुरुवर्य ! किसीको प्रथम अहिंसा महानतमें अथवा दूसरे सत्य महाव्रतमें दोष लगता है तो वह किसप्रकार शुद्ध होता है इस बातको मुझे समझाओ ।।६१२।। इसप्रकार अन्य मुनिके बहाने अपनी शुद्धि के लिये प्रच्छन्न रोत्या गुरुसे पूछा जाता है तब संसार बढ़ाने वाला छठा छन्न नामा दोष आता है ।।६१३।। यदि अन्यके भोजन करनेपर अन्यको तृप्ति होती हो तो अन्यके द्वारा आलोचना शुद्धि करनेपर किसी अन्यकी शुद्धि होना संभव है । अन्य मुनिके बहाने पूछकर जो
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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