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मरणकण्डिका संयमें चेत्कृतेऽन्येन विमुक्ति लभते परः । परव्याजकृता शुद्धिस्तदा शोधयते परम् ॥६१६॥
छंद-उपजातिगरोनिजं वोषमभाषमाणो दोषस्य यः कांक्षति शुद्धिमज्ञः। मन्ये स तोयं मृगतृष्णकातो जिघृक्षतेऽन्न शशिबिमतो वा ।। ६१७॥ शब्दाफुले चतुर्मासपक्षवर्षक्रियारिने । यथेच्छ पुरतः सूरेरालोचति योऽधमः ॥६१८॥ अव्यक्त यवतः स्वस्य दोषान्संक्लिष्ट चेतसः । पालोचनागतो दोषः सप्तमः कथितः जिनः ॥६१६।।
क्षपक अपनी शृद्धि करना चाहता है वह किसी अन्य पुरुष द्वारा औषध पीनेपर अपना आरोग्य करना चाहता है ।।६१४।।६१५।। ।।
परके छल से अपनी आलोचनाको शुद्धि तब संभव है जब अन्य मुनि द्वारा संयम पालन करनेपर किसी अन्य मुनिराजको मुक्तिका लाभ होता हो ॥६१६।।
जो अज्ञ क्षपक अपने दोषको गुरुके समक्ष बिना कहे ही दोषको शद्धि करना चाहता है, वह मरीचिकासे जलको चाहता है अथवा चन्द्र बिबसे अन्न चाहता है ऐसा मैं मानता हूँ ।।६१७॥ (७) शब्दाकुलित दोष--
चातुर्मासिक, पाक्षिक, वार्षिक प्रतिक्रमण आदि क्रियाके दिन हैं उससे कोलाहल शब्द हो रहा है, उस वक्त जो अधमक्षपक अपनी इच्छानुसार आचार्य के आगे आलोचना करता है । अपने दोषोंको अव्यक्त रीत्या संक्लिष्ट मनसे कहनेवाले क्षपकके आलोचनामें होने वाला सातवां शब्दाकुलित दोष होता है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ।।६१८।।
शद्धिको जाननेवाले महान् गणधरादि ऐसी शुद्धिको घटीयंत्रमें होने वाले घटके समान मानते हैं अथवा फूटे घड़े के समान या चुदरज्जु सदृश मानते हैं ।।६१९।।