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सुस्थितादि अधिकार अरगर्तघटीयंत्रं समां भिन्नघटोपमा । चुबरज्जुनिभामेनां शुटि शुद्धिविदो विदुः ।।६२०॥ भूरिभक्तिभरानम्रः सूरिपादाम्बुजद्वयम् । प्रणम्य भाषते कश्चिद् दोषं सर्व विधानतः ॥६२१॥ तस्य सत्रार्थवक्षेण रस्नत्रितय शालिना । व्यवहारविदा दस प्रायश्चित्तं यथोचितम् ॥६२२।। यत्करूप व्यवहारांग पूर्वाविश्रतभाषितम् । तदालोच्य विधानेन दत्तं सूत्रपटोयसा ॥६२३।।
विशेषार्थ-अरघट यंत्रमें सकोरे जैसे लगे रहते हैं और वे एक तरफसे भरकर आते हैं और एक तरफसे खाली होते जाते हैं । अथवा भग्न घट में पानी ऊपरसे तो डाला जाता है और नोचेसे निकल जाता है ! इसीप्रकार जब शब्दो कोलाहल हो रहा है उस वक्त गुरुजनके पास आलोचना करना शब्दाकुलित दोष है ।
फटे घटमें पानी नहीं टिकता वैसे शब्दाकुलित दोष आत्मशुद्धि को नहीं होने देता । चुदरज्जू काष्ठ में छेद करने वाले बर्माको घमाते समय उसमें बँधी रस्सो एक तरफसे खुलती है और एक तरफसे बँधती जाती है वैसेही शब्दाकूलित दोष युक्त आलोचना करनेवाले के मुखसे दोष कहा जा रहा है— अपराध खुल रहा है किन्तु आचार्य ठीकसे नहीं सुन पाये ऐसी माया मनमें होने से माया अपराधसे पुन: कर्म बंध कर रहा है । (८) बहुजन दोष
कोई क्षपक अत्यंत भक्तिके भारसे नम्र हुआ आचार्यके चरणकमल युगलको प्रणाम करके सभी दोषोंको विधिपूर्वक कहता है ॥६२०।। और सूत्रार्थ में निपुण रत्नत्रयधारी व्यवहार के वेत्ता आचार्य द्वारा उस अपराधका यथोचित प्रायश्चित्त किया जाता है ।। ६२१।। जो कि प्रायश्चित्त ग्रंथ, अंग प्रविष्ट ग्रंथ और पूर्व ग्रंथोंमें कहा गया है उसको आलोचनाके अनुसार सूत्र में विशारद आचार्य द्वारा दिया गया है ।।६२२।। उस योग्य आचार्यके वचनपर श्रद्धा-विश्वास नहीं करके उक्त क्षपक पुनः दूसरे आचार्यको पूछता है सो वह आलोचना विषयक आठवां दोष कहा है 11६२३॥