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________________ १८८ ] मरणकण्डिका अश्रद्धाय बचस्तस्य स यथा पृच्छते परं । अष्टमः कथितो दोषस्तवालोचन गोचरः ।।६२४॥ छेद-उपासिदोषाबतीर्णोऽपि दवाति पीडां परप्रकारेण विशोध्यमानः। व्रणो हि शुष्कोऽपि करोति बाधा प्रचाल्यमानः किमुताविषह्यः॥६२५॥ प्रागमेन चरित्रेण बालो भवति यो यतिः। तस्यालोचयतो दोषं स्वं दोषो नवमो मतः ॥६२६।। निवेवितं मया सर्वं नासो जानाति दूषणम् । विश्राणयति मे शुद्धि प्रणिधायेति मानसे ॥२७॥ एक आचार्य द्वारा प्रायश्चित्त कार दोष दूर करने पर भी पुन: अन्य काचार्य अन्य प्रकारसे उस दोषका शोधन करते हैं इसतरह पुनः विशुद्धमान दोष क्षपकको पीड़ा उत्पन्न करता है, जैसे कि प्रण-घाव शुष्क हुआ है किन्तु उसको पुनः पुनः छेड़ोमसलदो तो वह असह्य बाधा को करता है ॥६२४।। (९) अव्यक्त दोष जो आचार्य आगमज्ञान तथा चारित्रसे बाल है अर्थात् आगमज्ञान और चारित्र विहीन है, ज्ञान चारित्र जिसका कमजोर है ऐसे आचार्य के निकट अपने दोषको आलोचना करन। उसका यह अव्यक्त नामका नौवां दोष है ।।६२५।। गुरुके निकट आलोचना करनेवाला क्षपक मन में यह सोचता है कि मैंने सर्व दोष मन बचन कायकी एकाग्रता करके शुद्धिपूर्वक कह दिये, ये मेरे लिये शुद्धि प्रदान करेंगे, किन्तु आगमज्ञान विहीन वह गुरु दोषको नहीं जानता है ।।६२६।। यह अव्यक्त दोष युक्तको गयो आलोचना बड़े भारी पश्चात्तापको देती है, जैसेकि दुष्टोंकी संगति या नकली सुवर्ण खरीदना पश्चात्तापको देता है ।।६२७।। दृष्टोंकी संगति समय समय पर पश्चात्ताप कराती है कि हाय ! मैंने ऐसे पुरुषको संगति क्यों को ? यह बहुत दुःख देता है इत्यादि 1 तथा अज्ञानतावश मकली सुवर्ण खरीदे तो जब उसके अलंकार आदि बनायेंगे तो वह नहीं बन पायेंगे तब
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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