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सुस्थिसादि अधिकार इदमालोचनं दत्ते पश्चात्तापं दुरुसरं । दुष्टानामिव सांगत्यं कूटं स्वर्णमिवाथवा ॥६२८।। पार्श्वस्थानां निजं दोषं पार्श्वस्थो भाषते कुधीः । निचितो निचितैर्दोषरेषोऽपि सदृशो मया ॥६२६।। जानीते मे यतः सर्वां सर्वदा सुखशीलताम् । प्रायश्चित्तं ततो नैष महद् दास्यति निश्चितम् ॥६३०॥ एतस्य कथने शुद्धिः सुखतो मे भविष्यति । अयमालोचनादोषो दशमो गदितो जिनः ॥६३१॥ जो दोषः सहोषार सदोषेण गश्यते । रक्तरक्तं कुतो वस्त्रं रक्तेनंब विशोध्यते ॥६३२।।
पश्चात्ताप होता है कि हाय ! मैंने नकलो सुवर्ण कैसे खरीदा इत्यादि । ठीक इसी प्रकार अज्ञानी गुरुके निकट अल्पज्ञानो क्षपक मुनि आलोचना करे तो उसे आगे पश्चात्ताप होता है क्योंकि उस अज्ञानी गुरुके प्रायश्चित्त से उसके रत्नत्रयको शद्धि नहीं होती है ।।६२८॥ (१०) तत्सेवो दोण---
कोई दुर्बुद्धि पार्श्वस्थ क्षपक पार्श्वस्थ आचार्य के निकट दोष कहता है, वह सोचता है कि यह आचार्य दोषोंसे संयुक्त है और मैं भी दोण युक्त हूँ, यह मेरे समान है ॥६२६।। यह मेरे सर्व सुखिया स्वभावको जानता है, अतः निश्चित ही बड़ा प्रायश्चित्त मुझे नहीं देगा ।।६३०।। ऐसे आचार्यके निकट दोषको कहनेपर मेरो शुद्धि सुखपूर्वक होवेगी । इसतरह करनेवाले क्षपकके यह दशवां तत्सेवी नामका आलोचना दोष होता है ऐसा जिनेन्द्र द्वारा कहा गया है ।।६३१॥
सदोष आचार्य के निकट कहा गया सदोष क्षपकका दोष नष्ट नहीं हो सकता है, जैसे कि लाल रंगसे रंगा हुआ वस्त्र लाल रंग द्वारा शुद्ध-सफेद नहीं होता है ११६३२।।