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मरणकण्डिका
छंद उपेन्द्रवज्राजिनेशवाक्यप्रतिकूलचित्ता यया विमुक्ति दवर्यात पूताम् । तथा विशुद्धि कुधियो वदन्तो वोषाकुलानां निजदूषणानि ॥६३३॥ हित्वा दोषान्दशापीति त्यक्तमायामदाविकः । स विनीतमनाः सूरेरालोचयति यत्नतः ॥६३४॥ गृहस्थवचनं मुक्त्वा मौनं च करनर्तनम् । सम्यक् सुस्पष्टया वाचा यक्ति दोषान्गुरोः पुरः ।।६३५।।
उक्त चमक संज्ञांग बलने भ्र क्षेपं हस्त नर्तनं । गृहिणां वचनं चैव तथा शम्दं च घर्घरं ॥१॥ विमुञ्चाभिमुखं स्थित्वा गुरूणां गुणधारिणां ।
स्वापराचं समाचष्टे विनयेन समन्वितः ॥२॥ जिसप्तकार जिनेन्द्र देवको वाणीसे प्रतिकूल चित्त बाले जीव अर्थात् मिथ्याष्टि जीव पवित्र मुक्तिको अपनेसे दूर करते हैं, उसप्रकार दुर्बुद्धि क्षपक दोषोंसे युक्त आचार्य को निज दोषोंको कहता हुआ शुद्धिको अपनेसे दूर करता है ।।६३३।।
भावार्थ-जसे मिध्यादृष्टि जीव जिनेन्द्र वचनमें श्रद्धा नहीं करता अतः उसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती । अश्रद्धाके कारण उलटे मुक्ति दूर होती है अर्थात् संसार भ्रमण बढ़ता ही जाता है । वैसे दोष युक्त आचार्यके निकट पालोचना करना शद्धिको प्रदान न करके उलटे शुद्धिसे दूर करता है।
इसप्रकार आलोचनाके दस दोषोंका वर्णन पूर्ण हुआ । पूर्वोक्त दस दोषोंको छोड़कर मायामद आदिका त्यागी विनीत भाववाला क्षपक मुनि प्राचार्य के निकट प्रयत्नसे आलोचना करता है ।।६३४।।
गृहस्थके बचन मौन और हाथोंका मटकाना आदिको छोड़कर भलोप्रकार स्पष्ट वाणीसे गुरुके आगे दोषोंको कहता है ।।६३५।। इस विषयमें अन्य ग्रन्थमें भी कहा है कि मकत्व, संज्ञा, अंगोंको मोड़ना, कटाक्ष छोड़ना, हाथका मचाना, गृहस्थ वचन, घर्घर शब्द इन सब विकारोंका त्यागकर, गुणवान् गुरुके सन्मुख बैठकर, विनयपूर्वक अपने अपराधको क्षपक कहता है ।।१।१२।।