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सुस्थितादि अघिजार
[ १९१ एक वि त्रि चतुः पंचहषीकांगि विराधने । असूनृतवचस्तेय मैथुन ग्रन्थसेवने ॥६३६॥ दर्शनज्ञानचारित्र तपसां प्रतिकूलने । उदगमोत्पादनाहार दुषणानां निषेवणे ॥६३७।। भिक्षे मरके मार्गे वैरिचौरादिरोधने । योऽपराधो भवेकश्चिन् मनोवाक्कायकर्मभिः ॥६३८।। सर्वदोषक्षयाकांक्षी संसारश्रमभोलुकः ।
पालोचयति तं सर्व क्रमतः पुरतो गुरोः ॥६३६।।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंको विराधना मैंने को है । असत्य वचन, चोरी, मैथुन, परिग्रह इन पापोंमें प्रवृत्ति हुई है ।।६३६।।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपको नष्ट करनेवाला प्रतिकूल आचरण किया हो, उद्गम, उत्पादना और एषणा संबंधी छियालीस दोषोंका सेवन किया गया हो ।।६३७।।
दुभिक्षके समय, रोग आनेपर, मार्गमें चोर वैरी आदिके द्वारा निरोध-रुकावट हो जानेपर मनवचन काय द्वारा जो कोई अपराध हुआ है। उन सभी अपराधोंको क्रमश: गरुके आगे क्षपक आलोचना करता है, कैसा है क्षपक ? जो समस्त दोषोंका नाश करना चाहता है तया संसारके कष्टोंसे भयभीत है ।।६३८।।६३६।।
विशेषार्थ-अहिंसा महाव्रत आदिमें अतिचार लगना जैसे पृथिवोकायिक जीवको विराधना जमीन को कूटने आदिसे होती है, वस्त्रादिसे हवा करनेपर वायुकायिक को, ओस बर्फ वर्षाके पानी आदिमें गमन करनेसं जलकायिक को, अग्निसे सेक करना आदिसे अग्निकायिककी, तृण आदि पर गमन करनेसे वनस्पति कायिक को विराधना साधु द्वारा संभव है । ऐसे हो द्वीन्द्रिय आदिको विराधनाके विषयमें लगाना । सत्यमहावतके अतिचार जैसे कठोर वचन, असभ्य वचन आदि बोलना । प्रचौर्य महाव्रतके अतिचार जैसे---किसीको गिरी हुई-पड़ी हुई वस्तु उठानेको अन्य जनसे कहना आदि। ब्रह्मचर्य महाव्रतके अतिचार जैसे-सुदर स्त्रीका अवलोकन, उसके साथ रागभावसे संभाषण आदि । परिग्रहत्याग महाव्रतके अतिचार जैसे-गृहस्थोचित वस्तुका ग्रहण, उसका शोधन आदि करना । सम्यक्त्वके अतिचार शंका कांक्षा आदि हैं 1 ज्ञानके अतिचार अकाल