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मरण कण्डिका स सामान्यविशेषाभ्यामभिधाय स्थदूषणम् । विधत्ते गुरुणा दत्तां विद्धि शुद्धमानसः ॥६४०॥ मनुष्यः कृतपापोऽपि कृतालोचननिदनः । संपद्यते लघुः सद्यो विमारोभारवानिव ॥६४१॥ भावशुद्धि न कुर्वन्ति भवन्तोऽपिबहुश्रुताः । चतुरंगे विमूढा ये दुःखपीड्या भवन्ति ते ॥६४२।।
अध्ययनादि हैं । चारित्रके अतिचार-समिति आदिके पालनमें शिथिलता, चारित्रका कुछ फल नहीं है ऐसे भाव होना आदि । तपके अतिचार-- उपवास आदि तप करते समय असंयम रूप प्रवृत्ति करना आदि | मुनिके आहार देनेमें गृहस्थ द्वारा जो दोष होते हैं वे उद्गम दोष हैं । मुनिके द्वारा जो उत्पन्न कराये जाते हैं वे उत्पादन दोष हैं । आहार ग्रहण करते समय दाता द्वारा जो दोण प्रवृत्त होते हैं ये एषणा दोष हैं । ये कुल छियालीस हैं । देशमें दुभिक्ष होनेपर अयोग्य आहार करना, रोग होनेपर औषधि को याचना करना, विहार करते समय चोरादिके द्वारा बाधित होनेपर छिपना भागना आदि से मुनियोंको दोण लगते हैं । इन सब ही दोनों का गुरुके समक्ष विनयभावसे निवेदन करना आलोचना कहलाती है। अहिंसा आदि व्रत, समिति, तप आदिमें बहुत प्रकारके अतिचार लगते हैं इस विषयका सुविस्तृत विवेचन मूलाराधना ग्रंथमें बहुत ही सुदर रीतिसे किया है।
वह शुद्ध मनवाला क्षपक सामान्य आलोचना और विशेष आलोचना द्वारा अपने दोषोंको गुरुके समक्ष कहकर गुरु द्वारा दी गयी विशुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्तको ग्रहण करता है ।। ६४०।।
भावार्थ-गृरुने जो भी प्रायश्चित्त दिया हो उसमें फिर राग द्वेष नहीं करता कि अधिक प्रायश्चित्त दिया है, कैसे इतने उपवास आदि करू ? ऐसा वह शिष्य नहीं सोचता है, प्रायश्चित्त का पूरा पालन करता है ।
पापी मनुष्य भो यदि निन्दा गर्दा आलोचना करता है तो वह शोत्र ही पाप भारसे हल्का हो जाता है, जैसे बहुतसा भार-बोझा ढ़ोनेवाला पुरुष भारको उतारकर हल्का हो जाता है ॥६४१।।