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________________ सुस्थितादि अधिकार [ १९३ त्रि:कृत्वालोचनां शुद्धां भिक्षोविज्ञाय तत्त्वतः । स मध्यस्थो रहस्यज्ञो दत्ते शुद्धि यथोचितां ॥६४३।। राजकार्यातुरा सत्य सशल्यानामिध त्रिधा । बोषाणां पृच्छना कार्या सूरिणागमयेविना ॥६४४॥ दोषान्न प्रांजलीभूय भाषसे यद्यशेषतः । न कुर्वन्ति तदा शुद्धि प्रायश्चित्त विचक्षणाः ।।६४५।। जो मुनि महाज्ञानी होकर भी चारित्र आदिमें भावोंकी शुद्धिको नहीं करते हैं, ये चार आराधनाओंमें विमूढ हुए दुःखोंसे पीड़ित होते हैं अर्थात् सम्यक्त्व आदिके दोषों की सरल मनसे आलोचना द्वारा शुद्धि नहीं करते हैं वे आराधना को प्राप्त नहीं करते, और इससे चतुर्गतिके दुःखोंको भोगते हैं ।।६४२।। क्षपक साधुकी तोन बार की गयी शुद्धि-आलोचना को भलीप्रकार जानकर प्रायश्चित्त ग्रंथके ज्ञाता मध्यस्थ ( रागद्वेषके उद्रेकसे रहित ) आचार्य दोषानुसार उचित शुद्धिको-प्रायश्चित्तको देते हैं ॥६४३।।। जिसप्रकार राजकार्य, रोगी, असत्य और शल्यके विषय में तोन बार पूछा जाता है उसीप्रकार आगमके ज्ञाता आचार्यको क्षपकसे दोषोंके विषयमें तीन बार पूछना चाहिये ॥६४४।। भावार्थ-राजाके द्वारा कहे हुए कार्यको राजासे तीन बार यथावसर पूछा जाता है कि क्या यह कार्य इसप्रकार करू ? रोगीको तीन बार वैद्य पूछता है कि तुमने क्या खाया था इत्यादि ? असत्यभाषीसे तीन बार पूछ कर वास्तविक बात जानो जाती है । शल्य-काटा या घाव होनेपर तीन बार देखा पूछा जाता है। इसी तरह क्षपक्रको उसके अपराधों को तीन बार पूछा जाता है-तोन बार उससे आलोचना करते हैं। इस तरह करनेसे पता चलता है कि यह वास्तविक रूपसे दोष को कह रहा है या नहीं ? यदि तीनों बार एक तरहसे हो दोषोंका निवेदन करता है तो समझना चाहिये कि यह सरल भावसे आलोचना कर रहा है। और यदि तीनों बार पृथक् पृथक् रूपसे दोष कथन करता है तो आचार्यको समझना चाहिये कि यह क्षपक कुटिल भावसे आलोचना कर रहा है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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