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मरणकण्डिका
निःशेषं भाषते दोषं यदि प्रांजलमानसः । तदानी कुसे शुद्धि व्यवहारविशारदाः ॥६४६।। सम्यगालोचते सेन सूत्रं मीमांसते गणी । प्रनालोचे न कुर्वति महान्तः कांचन क्रिया ॥६४७।। जास्वा बक्रामवक्रां वा सूरिरालोचनां यतेः । विदधाति प्रतीकारं शुद्धिरस्ति कुतोऽन्यया ॥६४८॥ आतस्य प्रतिसेवातो हानि विश्च देहिनाम् । पापस्य परिणामेन तीव्रामंदा च जायते ॥६४६॥
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यदि क्षपक मुनि सरल भावसे संपूर्ण दोषोंको नहीं कहता है तो प्रायश्चित्त में कुशल आचार्य उसको शुद्धि नहीं करते हैं अर्थात् उसको प्रायश्चित्त नहीं देते हैं ॥६४५।। यदि क्षपक सरल मनवाला होकर समस्त दोष कहता है तो व्यवहार शास्त्र-प्रायश्चित्त शास्त्र में विशारद आचार्य उसकी शुद्धि करते हैं, उसे प्रायश्चित्त देते हैं ।।६४६।।
क्षपक द्वारा सम्यक आलोचना करनेपर आचार्य प्रायश्चित्त ग्रंथका अवलोकन करते हैं अर्थात् अमूक अपराध इससे हुआ है इसके लिये कौनसा प्रायश्चित्त उचित है इत्यादि रूपसे ग्रंथावलोकन द्वारा विचार करते हैं क्योंकि महापुरुष बिना विचार किये किसी भी कार्यको नहीं करते हैं ।।६४७।।
आचार्य क्षपक यतिको सरल या कुटिल आलोचना अच्छी तरह जान करके उसका प्रतीकार करते हैं--प्रायश्चित्त द्वारा दोषोंकी शुद्धि करते हैं। अन्यथा अर्थात आलोचनाके बिना जाने शुद्धि किसतरह संभव है ।।६४८।।
जीबोंके जो अपराध या दोष हुए हैं उनमें हानि और वृद्धि हो जाया करती है। पापके परिणामसे तीव्रता और मंदता होती है आशय यह है कि जिससमय अपराध किया उससमय तीव्र अशुभ परिणाम था तो तो पापबंध हुआ तदनंतर शुभ परिणाम हुआ तो उस पापबंध में हानि हो जाती है यदि पीछे भी तीव्र अशुभ परिणाम हुए तो उक्त पापबंध में और अधिक वृद्धि होती है यह एक बात है । तथा जब उस अपराधकी आलोचना गुरु समक्ष करते हैं उसमें भी अनेक तरहके परिणाम होते हैं यदि आलोचना के समय परिणाम अति निर्मल है तो पापबंधमें बहुत हानि या पापकर्मका संक्रमण द्वारा