________________
[ १९५
सुस्थितादि अधिकार स्थिरत्वं नयते पूर्व संसारासुखकारणं । एतेषां चिनुते पापं संक्लिष्टः क्षिपते गुणम् ॥६५०।। कृस्थापि कल्मषं कश्चित् पश्चात्ताप कृशानुना । दह्यमानमना देशं सर्व वा हंति निश्चितम् ॥६५१।। नालिकाधमज्जावा प्रमाणं कुरते सुधीः । ततः शुध्यति यावत्या वायतों स परिनियां ॥६५२।। उल्लाघीकुरुते वैद्यो वैद्यशास्त्रविशारदः । यथातुरं कृताभ्यासो रोगातका दिपीडितम् ॥६५३॥
-
----
नाश हो जाता है । यदि आलोचनाके समय परिणाम में अल्प निर्मलता है तो बँधे पाप फी कम हानि होगी ।।६४६।।
संक्लेश परिणाम संसार दुःखके कारण रूप ऐसे पहलेके बँधे हुए पापकर्मको दृढ़-अधिक तीव्र शक्तिवाला कर देता है तथा नया कर्म संचय भी कर देता है और सम्यक्त्वादि गुणका नाश करता है ।। ६५०।।
कोई मनि पापको करके भी पीछे-पश्चात्ताप रूपी अग्निके द्वारा जिसका मन जल रहा है ऐसा हुआ उस पापको एक देशरूप या पूर्णतया नियमसे नष्ट कर डालता है अर्थात् अपराध द्वारा पापका बंध पहले हुआ किन्तु पीछे पश्चात्ताप हआ कि हाय ! हाय ! मैंने बहुत गलत कार्य किया है इस कार्यसे संसार भ्रमण होता है अब ऐसा कभी नहीं करूगा । ऐसे पश्चातापसे बँधा हुआ कर्म आंशिक या पूर्ण रूपसे नष्ट होता है । जितनी परिणाम में निर्मलता होगी उतना कर्मनाश होगा ।।६५१||
बुद्धिमान, प्रायश्चित्त ग्रंथके ज्ञाता आचार्य सुनार के समान क्षपकके परिणाम जानकर जितने प्रायश्चित्तसे क्षपक शुद्ध होगा उतना प्रायश्चित्त उसे देते हैं अर्थात सूनार जसे जितने तापसे यह सुवर्ण शुद्ध होगा ऐसा जानकर उतना ताव देकर सुवर्णको शुद्ध करता है । वैसे ही आचार्य क्षपक जितने प्रायश्चित्तसे शुद्ध होगा उतना प्रायश्चित्त देते हैं ।।६५२॥
जैसे वैद्यक ग्रंथमें विशारद तथा जिसने बहुतबार रोगीकी चिकित्सा करके अभ्यास किया है ऐसा वंद्य रोग आतंक अदिसे पीड़ित रोगी को रोग रहित करता है