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मरणकगिद्धका गणाधिपः कृताभ्यासो व्यवहारविचक्षणः । जग माहीत लिहलो कुरुते तथा ॥६५४॥ गणस्थिते सतीदृशे स्थविरेऽध्यापके तथा । अस्ति प्रवर्तको वृद्धो बालाचार्योऽथ यत्नतः ।।६५५।। स चारित्रगुणाकांक्षी कृत्वा शुद्धि विधानतः । गुरोरते समाचारी विशुद्ध चेष्टते तराम् ॥६५६।।
प्रसन्न सुखी करता है । वैसेही प्रायश्चित्त ग्रंथ में विशारद तथा जिसने बहुतबार प्रायश्चित्त । देकर मूनिको शुद्ध करनेका अभ्यास किया है अर्थात् जिसने बहुत बार शिष्योंको प्रायश्चित्त दिया है ऐसा आचार्य दोषोंसे मलिन हुए क्षपकको प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धनिर्मल करता है ।।६५३।।६५४।।
आचारी आधारी आदि गुणोंसे समन्वित आचार्य संघमें कदाचित नहीं हैं स्थविर और उपाध्याय भी नहीं हैं तो ऐसे अवसर पर वृद्ध प्रवर्तक मुनि अथवा जो अभी नया आचार्य बना ऐसे बालाचार्यको प्रयत्न पूर्वक निर्यापक गुरु बनाया जाता है अर्थात मुनिको सल्लेखना करनी है और संघमें आचार्य विद्यमान नहीं हैं तो जो वृद्ध प्रवर्तक आदि श्रेष्ठ मुनि हैं उनको निर्यापक गुरु मानकर उनसे सल्लेखना संपन्न करायो जाती है ।।६५५॥
विशेषार्थ-संघमें किसीकी समाधिका अवसर प्राप्त है और आचारवान पादि गुणोंके धारक आचार्य नहीं हैं तो उन जैसे स्थधिर मुनि निर्यापक बनाये जाते हैं, जो रत्नत्रय स्वरूप मोक्षमार्ग के ज्ञाता हैं एवं चिरकालसे दीक्षित हैं उसे स्थविर मुनि कहते हैं । स्थविर मुनिका अभाव हो तो आचार्य सदृश गुणोंके धारक उपाध्याय को निर्यापकका कार्य सौंपा जाता है, उसका भी अभाव हो तो वृद्ध प्रवर्तक मुनि इस कार्य को करते हैं–निर्यापक बनाये जाते हैं। अल्पश्रुतज्ञानी होकर भी जो सर्व संघकी मर्यादा एवं चारित्रका जानकार हो उसे प्रवर्तक मुनि कहते हैं ।
चारित्र गणों का जो प्राकांक्षी है ऐसा क्षपक विधि विधान से गुरुके समीप आलोचना शुद्धिको करके समाचारी अर्थात् अपने योग्य आचरण को जिसने कर लिया है ऐसा होकर अतिशय आत्म विशुद्धि के लिये सदा प्रयत्नशील रहता है ।।६५६।।