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________________ सुस्थितादि अधिकार [ १६७ वर्षासु विविधं स्पृष्ट्वा तपःकर्म विधानतः । सुखवृत्तौ स हेमन्ते संस्तरं प्रतिपद्यते ॥६५७।। छंद उपजातिनिस्पर्शवग्निश्चतुरंग दोषं गुरुपदेशेन विशुद्धचेताः । प्रवर्तते शुद्धगुणाधिरूढः संसार कान्तार विलंघनाय ।। ६५८।। । इति गुणदोषौ। छंद स्रग्विणीगाथका वादका नर्तकाश्चाधिका: शालिका मालिका: कोलिका वांशिकाः । काष्ठिका लोहिका मात्सिकाः पात्रिकाः कांडिका दांडिकाश्चामिकाश्छिम्पकाः॥६५६ ।। --. .- ... ........ .-- -. भावार्थ-निर्मल परिणाम, निर्मल चारित्र प्राप्तिको जो तोव इच्छा रखता है अर्थात मेरा चारित्र उज्ज्वल हो मैं सदा मोक्षपुरुषार्थ में उद्यत होऊ । ऐसी जिसकी श्रेष्ठ भावना है वह क्षपक निर्दोष आलोचना को गुरुके समीप करता है । प्रायश्चित्तको ग्रहण कर पालनकर रत्नत्रयमें प्रवृत्ति करता है तथा समाधिके लिये गुरुके निर्देशानुसार सदा जाग्रत रहता है। वह क्षपक वर्षाकाल में अनेक प्रकारके तपश्चरणको विधिपूर्वक करता है, पुनः सुखपूर्वक उपवास आदि जिसमें संपन्न होते हैं ऐसे हेमन्त ऋतुमें संस्तर ग्रहण करता है ।।६५७। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं के दोषोंको दूरकर गरुके उपदेशसे विशुद्ध चित्तवाला क्षपक शुद्ध गुणों में आरूढ़ हुआ संसार रूप वनका उल्लंघन करने के लिये प्रयत्न करता है । अर्थात् गुण और दोषोंको जानकर गणोंमें प्रवृत्ति और दोषोंसे निवृत्ति करता है ॥६५८।। इसप्रकार गुणदोषनामा चौबीसा अधिकार पूर्ण हुआ। (२५) शय्या अधिकार क्षपकके लिये सन्यास में कौनसी वसतिका अयोग्य है इस बातको बतलाते हैं गायक, वादक, नर्तक, चाक्रिक, शालिक ( हाथी घोड़े आदिको झालामें नियुक्त पुरुष ) मालाकार, कोलिक (कोलो) वांशिक (बाँसुरी बजाने वाले या बांस
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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