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मरणकण्डिका
छंद त्रग्विणीचारणा वारणा वाजिनो मेषका मद्यपाः पंडकाः साथिका सेवकाः । ग्राविकाः कोट्टपालाः कुलाला भटाः पण्यनारीजनायूतकारा विटाः ॥६६॥
सहिगी.... संति यस्याः समीपे निकृष्टक्रिया सा न शय्या निषेव्या कदाचिद् बुधैः । पालयद्धिः समाधानरलं सवारूढसंसारकान्तारबिच्छेदकम् ॥६६१।।
पञ्चाक्षप्रसरो यस्यां विधते न कदाचन । त्रिगुप्तो वसतो तस्यां शुभध्यानोऽवतिष्ठते ॥६६२॥ उदगमाविमलापोदा सप्रकाशागतक्रिया ।
संस्कारकरणायोग्या सम्मूच्र्छन विजिता ॥६६३॥ - - -.
- - - - - - ५९ पढ़कर लेस पिलाने वाले) काठिक-बदर्द, लोहिक, लुहार, मात्सिक-मछलीमार, पात्रिक (बर्तन बेचनेवाले) कांडिक दौडिक (दंडा खेलनेवाले या बेचनेवाले) चामिकचमार, छिपका-रंगरेज ||६५९।। चारण-भाट, बारण, धुड़सवार, मेंढेको पालन करनेवाले, मद्यपायी, पंडे, साथिक, सेवक, ग्राविक----पत्थरका काम करनेवाले, कोटपाल, कुम्हार, सुभट, वेश्या, जुआरी, बदमाश ॥६६०॥
ऐसे ऐसे निकृष्ट कार्य करनेवाले लोग जिस वसतिकाके समीप रहते हैं वह वसतिका उत्पन्न हुए संसाररूपी वनका नाश करने वाले समाधान रत्नका जो पालन कर रहे हैं ऐसे बुद्धिमान मुनिजनों द्वारा कभी भी सेव्य-रहने योग्य नहीं होती है ।।६६१।।
जिस वसतिमें पांचों इन्द्रियोंका प्रसर कभी नहीं होता अर्थात् स्पर्शन आदि इन्द्रियां अपने स्पर्शादि विषयोंके तरफ नहीं दौड़ती हैं-जहां इन विषयोंका अभाव है। जो मन बचन कायका रक्षक है ऐसा वसतिमें शुभ ब्यान करता हुआ अपक निवास करता है ॥६६॥
वसति उद्गम आदि दोषोंसे रहित, प्रकाश युक्त, लेपन मार्जन आदि क्रियासे रहित अथवा अपने लिये नहीं बनायो हो, संस्कार रहित और संमूच्छंन जीवोंसे रहित होना चाहिये ।।६६३।। वसति मिथ्यादृष्टि के लिये अगम्य हो अर्थात् अजैन जिसमें प्रवेश