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________________ सुस्थितादि अधिकार मिथ्याष्टिजनागम्या गहिणाय्याविजिताः । द्वित्रा वसतयो ग्राह्याः सेव्या विध्यस्ततामसाः ॥६६४॥ निबिडाः संवतद्वाराः सुप्रवेशविनिष्क्रमाः । सकवाटा लसत्कुछया बालमनोविता: ।६।। उद्यानमंदिरे हृद्ये गुहायां शून्यवेश्मनि । प्रागंतुक निवासे वा स्थितिः कृत्या समाधये ।।६६६॥ क्षपकाध्यषिते धिष्ण्ये धर्मश्रवणमंडपः । जनानंदकरः श्रेयः कर्तव्य: कटकादिभिः ॥६६७॥ इति शय्या नहीं करते ऐसी हो । गृहस्थोंको वसतिसे दूर हो या जिसमें गृहस्थ नहीं रहते हों, अंधकार रहित हो ऐसो दो तीन वसतिकायें ग्रहण करनी चाहिये, यही वसति सेवनीय है ।।६६४॥ वसति मजबूत होना चाहिये, द्वारोंसे ढकी हुई, जिसमें जाना आना सरल रोतिसे हो सके ऐसी हो, कबाटयुक्त दृढ़ दिवालवाली, बाल वृद्ध लोगोंको योग्य होना चाहिये ।।६६५॥ वसति के लिये सुदर उद्यान का मंदिर योग्य है अथवा गुफा, शन्य घर, धर्मशाला इत्यादिमें समाधि के लिये निवास करना चाहिये ।।६६६।। क्षपकके द्वारा जहां निवास किया गया है उस श्रेष्ठ स्थान पर धर्म श्रवणके लिये मंडप चटाई आदि द्वारा बनाना चाहिये जो लोगोंको आनंददायक और श्रेयस्कर हो ॥६६७।। भावार्थ----गायक आदि निकृष्ट लोगोंके गहोंसे जित सुदृढ योग्य वसति में क्षपकको आचार्य निवास कराते हैं । वह स्थान अपने उद्देश्य से बना हुआ नहीं हो यदि ऐसी वसति न हो तो चटाई बांस आदिसे वसति करानी चाहिये । क्षपककी सल्लेखना देखने के लिये भव्य जोष आते हैं उनको धर्म श्रवण अन्य मुनिजन कराते हैं एतदर्थ धर्म श्रवण मंडप भी बसतिके पास होना चाहिये । इसप्रकार वाय्या अथवा वसति नामा पच्चीसवां अधिकार पूर्ण हुआ ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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