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मरण कण्नुिका
उत्तराशाशिराः क्षोणीशिलाकाष्ठतृणास्मकः । संस्तरो विधिना कार्यः पूर्वाशामस्तकोऽथवा ॥६६॥ नि:स्निग्धत्व सुखस्पर्शः प्रासुको निबिलोधनः । संस्तरः क्रियते क्षोणीप्रमाणरचितः समः ॥६६६॥ विध्वस्तोऽस्फुटितोऽकम्पः समपृष्ठो विजंतुकः । उद्योते मसणः कार्यः संस्तरोऽस्ति शिलामयः ।।६७०॥ लघभूमिसमो रुन्द्रो निःशब्दः स्वप्रमाणकः ।
एकांगः संस्मशेऽछिद्रः प्रतक्ष्णः काष्ठमयो मतः ।।६७१॥ (२६) संस्तर अधिकार
पूर्वोक्त गुणवाली वसतिमें पृथ्वीरूप, शिलारूप, काष्ठरूप या तृणरूप संस्तर विधिपर्थक करना चाहिये जिसमें क्षपकका मस्तक उत्तर दिशामें होवे या पूर्व दिशामें होवे ऐसी संस्तरको रचना होनी चाहिये ।।६६८।।
भावार्थ-क्षपकको जिसपर शयन करना है बह जमीन भूमिरूप होता है, अथवा पत्थर-शिलारूप होता है, या घासका होता है अथवा लकड़ीका होता है उसमें उत्तर दिशामें मस्तक करके या पूर्व दिशामें मस्तक करके क्षपक शयन करे क्योंकि विदेह क्षेत्रस्थ तीर्थकर उत्तर दिशामें हैं और पूर्व दिशा प्रकाशमान सूर्य के उदयका कारण है अत: ये दिशाएं प्रशस्त मानी हैं। भूमि संस्तर कैसा हो सो बताते हैं
___ आर्द्रता-गोलेपनेसे रहित, सुखस्पर्श वाली, निर्जन्तुक बिल रहित, ठोस, क्षपके शरीर प्रमाण रचित ऐसी समभूमिरूप संस्तर किया जाता है ।।६६९।। शिलामय संस्तर
दाह घर्षण आदिसे विश्वस्त हुआ, टूटा हुआ नहीं हो, स्थिर, समतल, जन्तु-रहित, चिकना, ऐसा शिलामय संस्तर प्रकाशयुक्त स्थानमें करना चाहिये।।६७०।। काष्ठमय संस्तर
___ काष्ठ-लकड़ीका बनाया हुआ संस्तर हल्का हो, भूमि बराबर हो अर्थात् फड जैसी होतो है वैसा हो अथवा चार पांच अंगुल भूमिसे ऊँचा हो, इससे अधिक ऊँचा होनेसे क्षपकको गिरने आदिसे अपाय होने की संभावना रहती है । विस्तीर्ण खटखट शब्द