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________________ सुस्थितादि अधिकार कृत्यस्तृणमयोऽसंधिः संस्तरो निरुपद्रवः । मृदुः सुप्रतिलेखनः ॥६७२॥ निःसम्मूर्च्छरपच्छिद्रो प्रमाणरचितो योग्यः कालद्वितय शोधनः | आरोढव्यस्त्रिगुप्तेन संस्तरोऽयं समाधये ॥ ६७३ || निर्याण के समयं स्वं समस्तगुणशालिनि । प्रवर्तते विधानेन क्षपकः सस्तरे स्थितः ॥६७४॥ छंद भुजंगप्रयात [ २०१ तृणक्षोणिपाषाणकाष्ठप्रशस्ते स्थितः संस्तरेधर्ममार्गप्रवीणः । धुनीते समस्तानि कर्माणियोगी रणेयोधवर्गीबलानीव धीरः ।। ६७५ ।। ॥ इति संस्तरः || नहीं करता हो, क्षपकके शरीर प्रमाण हो, एक लकड़ीसे रचित हो, छिद्ररहित, चिकना ऐसा काष्ठमय संस्तर होता है ।।६७१|| तृणमय संस्तर--- संधिरहित, निरुपद्रव अर्थात् गांठ रहित, संमूर्च्छन जीवोंसे रहित, छेद रहित, कोमल, जिसका शोधन भली प्रकार से हो सके ऐसा तृणमय घासका संस्तर करना चाहिये ||६७२ || अपने शरीर प्रमाण रचा गया, योग्य, दोनों संध्याओं में जिसका शोधन किया जाता है ऐसा यह संस्तर होता है उस संस्तरमें समाधिके लिये अपकको अशुभ मन वचन काया गोपन करके आरोहन करना चाहिये ॥१६७३ || संस्तर पर आरूढ़ हुआ क्षपक समस्त गुणोंसे युक्त निर्यापकमें अपनेको समर्पित करके विधिपूर्वक प्रवृत्ति करता है । अर्थात् निर्वापकको शरण मानकर तदनुसार आचरण करता है ॥१६७४॥ तृण, काष्ठ, पृथ्वी और शिलामय प्रशस्त संस्तर में आरूढ रत्नत्रयरूप धर्मं मार्ग में प्रवीण होता हुआ वह क्षपक योगी समस्त कर्मोंका नाश करता है । जैसे कि धीर योद्धा वर्ग रणांगण में पर सेनाको नष्ट कर डालता है ।।६७५ ।। ॥ इति संस्तर |
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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