________________
निर्यापकादि अधिकार
स्थेयांसः प्रियधर्माणः संविग्नाः पापभोरवः । ख्याताश्छंबानुगमनाः कल्पाकल्प विचक्षणाः ॥६७६॥ प्रत्याख्यानविवो धीराः समाधानक्रियोद्यताः । षट्तारिताष्ट संख्याना ग्राह्या निर्यापकाः पराः ।।६७७॥
प्रामर्शनपरामर्श गमस्थानशयादिषु । • उद्वर्तनपरावर्त
प्रसाराकुचनादिष ॥६७८।।
(२७) निर्यापक अधिकार
आलोचना आदि परिकर को जिसने कर लिया है उक्त लक्षणवालो वसति में विधिपूर्वक किये गये संस्तर पर जो आरूढ़ है ऐसे उस क्षपक मुनिके समाधिमें सहायक अड़तालोस मुनि होते हैं वे मुनि कैसे हों यह बताते हैं
जो मुनि चारित्रमें स्थिर हैं, रत्नत्रयधर्म जिन्हें प्रिय है संसारसे उदासीन हैं, पापभीरु हैं, प्रसिद्ध हैं, क्षपकके इशारेको, अभिप्रायको बिना कहे जानते हैं, योग्य अयोग्यको जानने में कुशल हैं । त्यागकी विधिमें निपुण, परीषह सहन में धोर, क्षपकको समाधान कराने वाले, ऐसे गुणवाले अड़तालीस निर्यापक-परिचारक मुनि समाधिमें ग्रहण करने चाहिये ।।६७६।१६७७।।।
उक्त अड़तालीस मुनियों में चार परिचारक मुनि क्षपकके शरीरके एकदेश में द्वाथ फेरना, सर्वांगमें हाथ फेरना, गमन कराना, क्षपकको खड़ा करना, सुला देना, करवट दिलाना, उलटा सुलाना, हाथ पैर को फैलाना और सिकोड़ना इत्यादि शरीरका