SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्यापकादि अधिकार बेहकर्मसु वेष्टन्ते क्षपकस्य समाधिदा: 1 चत्वारो यतयो भवत्या परिचर्या परायणाः ।। ६७६ ॥ ब्रध्यदेशादिगोचराः । स्त्रीराजमन्मथाहार विमुच्य विकथाः सर्वाः समाधाननिषुवनीः ||६६० || श्रनाकुलमनुद्विग्नमन्पाक्षेपमनुद्धतं J अनर्थहीन मश्लिष्टमविचलित मद्भुतम् ।।६८१।। ।।६६२ ।। नर्क द थु हृदयंगमं । धर्मं वदन्ति चत्वारो हृधचित्रकथोद्यता: क्षपकस्य कथाकच्या सायां श्रुत्वा विमुञ्चते सर्वथा दिपरीणामं याति संवेग निर्विव भवत्याक्षेप निर्वग निर्वेबजनिका : कथा: L क्षपकस्योचितास्तिस्रो विक्षेपजनिका तु नो ॥। ६८४|| ।।६८३।। | २०३ कार्य करनेमें प्रयत्नशील रहते हैं । कैसे हैं वे मुनि ? क्षपकको समाधान देनेवाले हैं, भक्ति से सेवा करने में तत्पर है ।।६७८ ।। ६७६ ॥ अन्य चार मुनि क्षपकके धर्मोपदेश में नियुक्त होते हैं, ये मुनि शांतिको नष्ट करनेवाली ऐसो स्त्रीकथा, राजकथा, काम, आहार, द्रव्य देश आदि से संबद्ध सर्व विक्रथाओंको छोड़कर धर्मका उपदेश देते हैं ।। ६८० || उपदेश सुनाते समय, आकुलता उत्पन्न न हो ऐसे वचन बोलते हैं तथा उद्वेग रहित विक्षेप-क्षोभ रहित, उद्दंडता रहित, अर्थहीन शब्दोंको छोड़कर, कठिनता से रहित, शीघ्रता और मंदता से रहित ऐसे वचन बोलते हैं ||६८१|| जो वचन क्षपकको आनंद उत्पन्न करते हैं, हितकर मधुर मनोहर हैं ऐसे वचनोंसे अनेक अनेक सुंदर कथा कहने में निपुण वे मुनि धर्मको कहते हैं ।।६८२ ।। क्षपको ऐसी कथा कहनी चाहिये जिसको सुनकर सर्वथा विपरिणामअशुभ परिणामको वह छोड़ दे और संवेग निर्वेदको प्राप्त हो । संसारसे भय होना संवेग है और शरीर भोगसे विरक्त होता निर्वेद है || ६८३ || क्षपकको आक्षेप जनिका निर्वेद अनिका और निर्वेग जनिका ऐसी तीन कथायें कहनी चाहिये, विक्षेप जनिका कथाको नहीं कहना चाहिये || ६८४ |
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy